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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 68
    ऋषिः - विश्वावसुर्ऋषिः देवता - कृषीवलाः कवयो वा देवताः छन्दः - विराडार्षी स्वरः - धैवतः
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    यु॒नक्त॒ सीरा॒ वि यु॒गा त॑नुध्वं कृ॒ते योनौ॑ वपते॒ह बीज॑म्। गि॒रा च॑ श्रु॒ष्टिः सभ॑रा॒ अस॑न्नो॒ नेदी॑य॒ऽइत्सृ॒ण्यः प॒क्वमेया॑त्॥६८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒नक्त॑। सीरा॑। वि। यु॒गा। त॒नु॒ध्व॒म्। कृ॒ते। योनौ॑। व॒प॒त॒। इ॒ह। बीज॑म्। गि॒रा। च॒। श्रु॒ष्टिः। सभ॑रा॒ इति॒ सऽभ॑राः। अस॑त्। नः॒। नेदी॑यः। इत्। सृ॒ण्यः᳖। प॒क्वम्। आ। इ॒या॒त् ॥६८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युनक्त सीरा वि युगा तनुध्वङ्कृते योनौ वपतेह बीजम् । गिरा च श्रुष्टिः सभराऽअसन्नो नेदीयऽइत्सृण्यः पक्वमेयात् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    युनक्त। सीरा। वि। युगा। तनुध्वम्। कृते। योनौ। वपत। इह। बीजम्। गिरा। च। श्रुष्टिः। सभरा इति सऽभराः। असत्। नः। नेदीयः। इत्। सृण्यः। पक्वम्। आ। इयात्॥६८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 68
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    पदार्थ -
    १. पिछले मन्त्र की कृषि का ही उल्लेख करते हुए कहते हैं कि- [१] (सीरा युनक्त) = हलों को जोतो । २. (युगा वितनुध्वम्) = जुओं का विस्तार करो। ३. (इह कृते योनौ) = इस संस्कृत भूमिक्षेत्र में (बीजम् वपत) = बीजों को बोवो । ३. (गिरा) = खेती विषयक कर्मों की उपयोगी सुशिक्षित वाणी (च) = और सुविचार से (सभरा:) = भरण-पोषण के तत्त्वोंवाले श्रुष्टिः = अन्न [अन्नं श्रुष्टिः- श०७।२।२।५ ] (नः असत्) = हमारे हों। हम वेदवाणी में प्रतिपादित भोज्य अन्नों को पैदा करनेवाले बनें, उन अन्नों को जिनमें कि भरण-पोषण के तत्त्व पर्याप्त मात्रा में हैं। हमारी कृषि, चाय, तम्बाकू की न हो। ४. हम प्रयत्न करें कि (नेदीय इत्) = थोड़े-से-थोड़े समय में ही (पक्वम्) = पका हुआ धान्य (सृण्यः) = दाँत से कटा जाकर (नः) = हमें (आ इयात्) = सर्वतः प्राप्त हो । ५. 'नेदीय' शब्द कुछ वैज्ञानिक उपाय से कृषि का संकेत करता है जिससे कि फ़सल शीघ्र ही काटी जा सके और हम वर्ष में अधिक-से-अधिक फसलें काट सकें। जैसे सामान्यतः भोजन चार घण्टे में पचता है इसी प्रकार फ़सल चार मास में पक सके और हम साल में तीन फ़सलें ले पाएँ ।

    भावार्थ - भावार्थ - खेती ज्ञानपूर्वक करनी है। पौष्टिक अन्न ही उपजाने हैं। 'विश्वावसु' बनने के लिए यह आवश्यक है।

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