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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 37
    ऋषिः - विरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    गर्भो॑ऽअ॒स्योष॑धीनां॒ गर्भो॒ वन॒स्पती॑नाम्। गर्भो॒ विश्व॑स्य भू॒तस्याग्ने॒ गर्भो॑ऽअ॒पाम॑सि॥३७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गर्भः॑। अ॒सि॒। ओष॑धीनाम्। गर्भः॑। वन॒स्पती॑नाम्। गर्भः॑। विश्व॑स्य। भू॒तस्य॑। अग्ने॑। गर्भः॑। अ॒पाम्। अ॒सि॒ ॥३७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गर्भाऽअस्योषधीनाङ्गर्भा वनस्पतीनाम् । गर्भा विश्वस्य भूतस्याग्ने गर्भा अपामसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    गर्भः। असि। ओषधीनाम्। गर्भः। वनस्पतीनाम्। गर्भः। विश्वस्य। भूतस्य। अग्ने। गर्भः। अपाम्। असि॥३७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 37
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    पदार्थ -

    १. ‘गर्भ’ शब्द ‘गृ’ निगरणे [ निगलना ] व ‘ग्रह उपादाने’ [ ग्रहण करना ] धातुओं से बनता है, अतः यह विरूप = औरों की अपेक्षा उत्कृष्ट रूपवाला—ज्ञान-प्रसार में रत व्यक्ति ( ओषधीनाम् ) = ओषधियों का ( गर्भः असि ) = निगलनेवाला—खानेवाला है। यह ( वनस्पतीनाम् ) = वनस्पतियों का ( गर्भः ) = खानेवाला है। प्रचारक को ओषधि-वनस्पतियों का ही ग्रहण करना चाहिए उसे मांसभोजी नहीं होना है। मांसभोजन क्रूरता व स्वार्थ का प्रतीक है। २. यह प्रचारक ( विश्वस्य भूतस्य ) = सब प्राणियों को ( गर्भः ) = अपनी ‘मैं’ में ग्रहण करनेवाला है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ = सारी वसुधा को यह अपना परिवार समझता है। ( अपाम् ) = सब प्रजाओं का ( गर्भः ) = ग्रहण करनेवाला है। [ क ] सारी प्रजाओं को अपनी ‘मैं’ में समाविष्ट कर लेने से यह सभी के दुःख से दुःखी होता है, अतः करुणात्मक स्वभाववाला बनता है। [ ख ] सभी की उन्नति में प्रसन्न होता है, अतः ईर्ष्या आदि से परे यह ‘मोद’ की वृत्तिवाला होता है। [ ग ] सभी से स्नेह के करण ‘मैत्री’वाला होता है। [ घ ] सभी में अपनापन अनुभव करने के कारण यह पापरत से भी घृणा न करके उपेक्षा को ही अपनाता है। ३. इसका यह स्वभाव इसके वानस्पतिक व सात्त्विक भोजन के कारण शुद्धान्तःकरण होने से ही है ‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः’। जो मांसभोजी होगा वह स्वार्थप्रधान होने से सभी को अपनी ‘मैं’ में समाविष्ट न कर सकेगा। यहाँ मन्त्र के पूर्वार्ध व उत्तरार्ध में यही कार्यकारणभाव है। शाकाहार कारण है, विश्वबन्धुत्व की भावना कार्य है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — एक आदर्श प्रचारक को शाकाहारी व विश्वबन्धुत्व की भावनावाला होना चाहिए।

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