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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 76
    ऋषिः - भिषगृषिः देवता - वैद्यो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    श॒तं वो॑ऽअम्ब॒ धामा॑नि स॒हस्र॑मु॒त वो॒ रुहः॑। अधा॑ शतक्रत्वो यू॒यमि॒मं मे॑ऽअग॒दं कृ॑त॥७६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तम्। वः॒। अ॒म्ब॒। धामा॑नि। स॒हस्र॑म्। उ॒त। वः॒। रुहः॑। अध॑। श॒त॒क्र॒त्व॒ इति॑ शतऽक्रत्वः। यू॒यम्। इ॒मम्। मे॒। अ॒ग॒द॒म्। कृ॒त॒ ॥७६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतँ वोऽअम्ब धामानि सहस्रमुत वो रुहः । अधा शतक्रत्वो यूयमिमन्मे अगदङ्कृत॥


    स्वर रहित पद पाठ

    शतम्। वः। अम्ब। धामानि। सहस्रम्। उत। वः। रुहः। अध। शतक्रत्व इति शतऽक्रत्वः। यूयम्। इमम्। मे। अगदम्। कृत॥७६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 76
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    पदार्थ -
    १. ओषधियाँ मातृतुल्य हित करनेवाली हैं, अतः कहते हैं कि अम्ब हे मातृभूत ओषधियो ! (वः) = तुम्हारे (शतं धामानि) = सैकड़ों धाम-स्थान व तेज हैं। [क] शतशः स्थानों में ये ओषधियाँ उत्पन्न होती हैं। कोई पर्वतमूल में, कोई मध्यभाग में और कोई पर्वतशिखरों पर तो कोई समुद्रतट पर उगती हैं, कोई वनों में व कोई मैदानों में और कई ओषधियाँ किन्हीं विशेष पर्वतों में ही उपलभ्य हैं। [ख] इस प्रकार इन ओषधियों के स्थान तो सैकड़ों हैं ही इनके तेज भी शक्तियाँ भी पृथक् पृथक् हैं। कई पित्तशमन करनेवाली हैं। तो कई वात विकार को शान्त करती हैं और दूसरी कफ़ प्रकोप को दूर भगानेवाली हैं। २. (उत) = और हे ओषधियो ! (वः) = तुम्हारी (सहः) = प्रभाव शक्तियाँ (सहस्रमुत) = अनन्त प्रकार का है। जब वैद्य इन्हें रोगी को देता है तब इन ओषधियों के विचित्र-विचित्र परिणाम उसके शरीर पर होते हैं। ३. (अध) = अब (शतक्रत्वः) = सैकड़ों कर्मों को करनेवाली ओषधियो ! (यूयम्) = तुम (मे) = मेरे (इमम्) = इस रोगी को (अगदम्) = रोग से रहित कृत कर दो। तम्हारे प्रभाव से यह मुझसे चिकिस्यमान रोगी स्वस्थ हो जाए। इसके रोग को तुम दूर करनेवाली बनो। तुम्हारी कृपा से मेरा 'भिषक्' यह नाम यशोन्वित बना रहे। -

    भावार्थ - भावार्थ- ओषधियों के अनन्त स्थान व तेज हैं। शतशः इनके परिणाम हैं। विचारपूर्वक दी गई ओषधियाँ रोगी को नीरोग करनेवाली होती हैं।

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