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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 100
    ऋषिः - वरुण ऋषिः देवता - वैद्या देवताः छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः
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    दी॒र्घायु॑स्तेऽओषधे खनि॒ता यस्मै॑ च त्वा॒ खना॑म्य॒हम्। अथो॒ त्वं दी॒र्घायु॑र्भू॒त्वा श॒तव॑ल्शा॒ विरो॑हतात्॥१००॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दी॒र्घायु॒रिति॑ दी॒र्घऽआ॑युः। ते॒। ओ॒ष॒धे॒। ख॒नि॒ता। यस्मै॑। च॒। त्वा॒। खना॑मि। अ॒हम्। अथो॒ऽइत्यथो॑। त्वम्। दी॒र्घायु॒रिति॑ दी॒र्घऽआ॑युः। भू॒त्वा। श॒तव॒ल्शेति॑ श॒तऽव॑ल्शा। वि। रो॒ह॒ता॒त् ॥१०० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दीर्घायुस्तऽओषधे खनिता यस्मै च त्वा खनाम्यहम् । अथो त्वन्दीर्घायुर्भूत्वा शतवल्शा वि रोहतात् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दीर्घायुरिति दीर्घऽआयुः। ते। ओषधे। खनिता। यस्मै। च। त्वा। खनामि। अहम्। अथोऽइत्यथो। त्वम्। दीर्घायुरिति दीर्घऽआयुः। भूत्वा। शतवल्शेति शतऽवल्शा। वि। रोहतात्॥१००॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 100
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    पदार्थ -
    १. हे (ओषधे) = रोगनाशकद्रव्य ! (ते खनिता) = तेरा खोदनेवाला - भूम्यादि के गुणविज्ञान से युक्त वैद्य जो तुझे भूमि से प्राप्त करता है वह (दीर्घायुः) = दीर्घ जीवनवाला हो, अर्थात् तुझे प्राप्त करने की प्रक्रिया में उसे किसी प्रकार की हानि न हो जाए। २. (च) = और (यस्मै) = जिसके लिए (अहम्) = मैं (त्वा) = तुझे (खनामि) = खोदता हूँ, वह रोगी भी तेरे द्वारा-तेरा प्रयोग कराये जाने पर नीरोग होकर दीर्घ जीवनवाला हो। ३. (अथो) = और निश्चय से (त्वम्) = तू भी (दीर्घायुः) = दीर्घ जीवनवाली (भूत्वा) = होकर (शतवल्शा) = असंख्य अंकुरोंवाली होकर विरोहतात् प्रादुर्भूत हो फैल, अर्थात् ('ओषध्यास्ते मूलं मा हिंसिषम्') = के अनुसार कोई भी खोदनेवाला तेरे मूल को नष्ट न कर दे। बचे हुए मूलवाली तू शतश: अंकुरोंवाली होकर फैलती रहे। तेरा अभाव न हो जाए।

    भावार्थ - भावार्थ- वैद्य, रोगी व औषध तीनों दीर्घ जीवनवाले हों।

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