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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 32
    ऋषिः - तापस ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    प्रेद॑ग्ने॒ ज्योति॑ष्मान् याहि शि॒वेभि॑र॒र्चिभि॒ष्ट्वम्। बृ॒हद्भि॑र्भा॒नुभि॒र्भास॒न् मा हि॑ꣳसीस्त॒न्वा प्र॒जाः॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र। इत्। अ॒ग्ने॒। ज्योति॑ष्मान्। या॒हि॒। शि॒वेभिः॑। अ॒र्चिभि॒रित्य॒र्चिऽभिः॑। त्वम्। बृ॒हद्भि॒रिति॑ बृ॒हत्ऽभिः॑। भा॒नुभि॒रिति॑ भा॒नुऽभिः॑। भास॑न्। मा। हि॒ꣳसीः॒। त॒न्वा᳖। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः ॥३२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रेदग्ने ज्योतिष्मान्याहि शिवेभिरर्चिभिष्ट्वम् । बृहद्भिर्भानुभिर्भासन्मा हिँसीस्तन्वा प्रजाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। इत्। अग्ने। ज्योतिष्मान्। याहि। शिवेभिः। अर्चिभिरित्यर्चिऽभिः। त्वम्। बृहद्भिरिति बृहत्ऽभिः। भानुभिरिति भानुऽभिः। भासन्। मा। हिꣳसीः। तन्वा। प्रजा इति प्रऽजाः॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 32
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    पदार्थ -

    १. हे ( अग्ने ) = अपने ज्ञानोपदेशों से सबको आगे ले-चलनेवाले ‘तापस’! ( त्वम् ) = तू ( ज्योतिष्मान् ) = ज्ञान की ज्योतिवाला बनकर ( शिवेभिः अर्चिभिः ) = कल्याणकर ज्ञान की ज्वालाओं से ( इत् ) = निश्चयपूर्वक ( प्रयाहि ) = आगे बढ़। वस्तुतः यह तापस अपनी ज्ञान-ज्वालाओं से प्रजाओं के पापरूप तृणों को दग्ध करता हुआ चलता है। २. ( बृहद्भिः ) = वृद्धि की कारणभूत ( भानुभिः ) = दीप्तियों से ( भासन् ) = चमकते हुए आप ( तन्वा ) = अपने शरीर से ( प्रजाः ) = प्रजाओं को ( मा हिंसीः ) = मत हिंसित कीजिए। तापस के शरीर से कोई ऐसी क्रिया न हो जो प्रजाओं की हिंसा का कारण बने। इस अहिंसा की प्रतिष्ठा होने पर ही इसके समीप आनेवाले सभी व्यक्तियों की वैरभावना समाप्त होगी और वे प्रेम से इसके उपदेश को सुन पाएँगे। ३. मन्त्रार्थ में निम्न बातें बड़ी स्पष्ट हैं कि आदर्श प्रचारक वही है जो [ क ] स्वयं ज्ञान की ज्योतिवाला है। [ ख ] जिसकी ज्ञान-ज्योति अमङ्गल का ध्वंस करती है। [ ग ] इसका ज्ञान लोगों की वृद्धि का कारण बनता है। [ घ ] यह किसी की हिंसा नहीं करता—मधुरवाणी का ही प्रयोग करता है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — स्वयं ज्योतिर्मय अहिंसक वृत्तिवाले बनकर हम ज्ञान-प्रसार द्वारा लोककल्याण का साधन करें।

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