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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 62
ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः
देवता - निर्ऋतिर्देवता
छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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असु॑न्वन्त॒मय॑जमानमिच्छ स्ते॒नस्ये॒त्यामन्वि॑हि॒ तस्क॑रस्य। अ॒न्यम॒स्मदि॑च्छ॒ सा त॑ऽइ॒त्या नमो॑ देवि निर्ऋते॒ तुभ्य॑मस्तु॥६२॥
स्वर सहित पद पाठअसु॑न्वन्तम्। अय॑जमानम्। इ॒च्छ॒। स्ते॒नस्य॑। इ॒त्याम्। अनु॑। इ॒हि॒। तस्क॑रस्य। अ॒न्यम्। अ॒स्मत्। इ॒च्छ॒। सा। ते॒। इ॒त्या। नमः॑। दे॒वि॒। नि॒र्ऋ॒त॒ इति॑ निःऽऋते। तुभ्य॑म्। अ॒स्तु॒ ॥६२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
असुन्वन्तमयजमानमिच्छ स्तेनस्येत्यामन्विहि तस्करस्य । अन्यमस्मदिच्छ सा तऽइत्या नमो देवि निरृते तुभ्यमस्तु ॥
स्वर रहित पद पाठ
असुन्वन्तम्। अयजमानम्। इच्छ। स्तेनस्य। इत्याम्। अनु। इहि। तस्करस्य। अन्यम्। अस्मत्। इच्छ। सा। ते। इत्या। नमः। देवि। निर्ऋत इति निःऽऋते। तुभ्यम्। अस्तु॥६२॥
विषय - निर्ऋति का मार्ग
पदार्थ -
१. ‘निर्ऋति' शब्द निरुक्त २१८ के अनुसार 'कृच्छ्रापत्ति'- मुसीबत का बोधक है। 'पाप्मा वै निर्ऋतिः ' श० ७।२।१।११ 'घोरा वै निर्ऋतिः ' - श० ७।२।१।११ - इन शतपथ वाक्यों से भी वही भाव व्यक्त हो रहा है। इस 'निर्ऋति' को पुरुषविध [personify] करके सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि हे (निर्ऋते) = दुर्गते ! तू (इच्छ) = इच्छा कर। किसकी ? [क] (असुन्वन्तम्) = सोमाभिषव न करनेवाले की। 'जो सोमयज्ञ नहीं करता' उस पुरुष की तू कामना कर। बड़े-बड़े यज्ञ, जिनमें सोमाहुति दी जाती है, सोमयज्ञ कहलाते हैं। 'असुन्वन्तं' की भावना हृदयदेश में सोम-प्रभु का ध्यान न करनेवाले की भी है। जो प्रभु का ध्यान नहीं करते वे दुर्गति में पड़ते ही हैं। [ख] (अयजमानम्) = हे निर्ऋते! तू अयजमान की कामना कर। तेरा आक्रमण यज्ञ न करनेवाले पर हो। 'देवपूजा, सङ्गतीकरण व दान' से दूर रहनेवाला पुरुष ही दुर्गति को प्राप्त करे। २. हे निर्ऋते ! तू (इत्याम् अनु इहि) = मार्ग के पीछे जा । किस मार्ग के ? उस मार्ग के [क] (स्तेनस्य) = गुप्त चोर के पीछे। जो रात्रि के समय सेंध आदि लगाकर दूसरों के धन को चुराता है, वह दुर्गति को प्राप्त करे । [ख] (तस्करस्य) = प्रकट चोर के मार्ग के पीछे तू जा । लुटेरे डाकुओं को दुर्गति प्राप्त हो। ३. (अस्मत् अन्यम्) = हम जो कि 'सोमाभिषव करनेवाले, यज्ञशील, अस्तेय धर्म का पालन करनेवाले, अहिंसक' हैं उनसे भिन्न व्यक्ति ही (इच्छ) = तेरी कामना का विषय बने। (सा ते इत्या) = वही तेरा मार्ग है, अर्थात् तुझे तो 'परमेश्वर को न माननेवाले अयज्ञशील, चोर व डाकुओं' के मार्ग पर ही जाना है। तेरे दण्डनीय वे ही व्यक्ति हैं। ४. हे (देवि) = दण्ड के द्वारा दमन करके सबको शुभ मार्ग पर लानेवाली कष्टदेवि! (तुभ्यं नमः अस्तु) = हम तुझे नमस्कार करते हैं। 'सम्यक् प्रणीत हुआ दण्ड सब प्रजाओं का रञ्जन करता है। एवं, प्रभु से दी गई आपत्तियाँ भी विशेष महत्त्व रखती हैं। वे मानव-जीवन के सुधार के लिए आवश्यक हैं।
भावार्थ - भावार्थ- दुर्गति के भागी वे होते हैं जो प्रभु का ध्यान नहीं करते, यज्ञशील नहीं होते, चोरी व डाका जिनका पेशा बन जाता है।
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