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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 84
    ऋषिः - भिषगृषिः देवता - वैद्या देवताः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अति॒ विश्वाः॑ परि॒ष्ठा स्ते॒नऽइ॑व व्र॒जम॑क्रमुः। ओष॑धीः॒ प्राचु॑च्यवु॒र्यत्किं च॑ त॒न्वो रपः॑॥८४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अति॑। विश्वाः॑। प॒रि॒ष्ठाः। प॒रि॒स्था इति॑ परि॒ऽस्थाः। स्ते॒नइ॒वेति॑ स्ते॒नःऽइ॑व। व्र॒जम्। अ॒क्र॒मुः॒। ओष॑धीः। प्र। अ॒चु॒च्य॒वुः। यत्। किम्। च॒। त॒न्वः᳖। रपः॑ ॥८४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अति विश्वाः परिष्ठा स्तेनऽइव व्रजमक्रमुः । ओषधीः प्राचुच्यवुर्यत्किञ्च तन्वो रपः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अति। विश्वाः। परिष्ठाः। परिस्था इति परिऽस्थाः। स्तेनइवेति स्तेनःऽइव। व्रजम्। अक्रमुः। ओषधीः। प्र। अचुच्यवुः। यत्। किम्। च। तन्वः। रपः॥८४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 84
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    पदार्थ -
    १. पिछले मन्त्र की ही भावना को कि ये ओषधियाँ रोगों को निकाल देती हैं, प्रकारान्तर से पुन: कहते हैं कि (विश्वा:) = शरीर में प्रवेश करनेवाली [विश to enter], (परिष्ठा:) = [परि सर्वतः व्याधीन् अधिष्ठाय तिष्ठन्ति] प्रवेश करके शरीर में सर्वत्र व्याधियों पर अधिष्ठित होनेवाली (ओषधी:) = ओषधियाँ (अत्यक्रमुः) = रोगों पर इस प्रकार अतिशयेन आक्रमण करती हैं (इव) = जिस प्रकार (स्तेनः) = चोर (व्रजम्) = गोष्ठ पर। जैसे रात्रि में चोर गो-हरण के लिए गोशाला पर आक्रमण करता है और चुपके से गौ को चुरा ले जाता है, इसी प्रकार ओषधियाँ शरीर में प्रवेश करके रोगों को चुपके से चुरा ले जाती हैं। २. इस प्रकार ये ओषधियाँ (यत् किंच) = जो कुछ भी (तन्वः रपः) = शरीर का पाप, अर्थात् शिरोव्यथा गुल्म या अतिसार आदि रोगरूप पाप का फल होता है, उस सबको (प्राचुच्यवुः) = प्रच्यावित कर देती हैं, नष्ट कर देती हैं। शरीर में किसी प्रकार का रोग नहीं रह जाता। ३. 'स्तेन इव व्रजम्' इस उपमा को इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जिस प्रकार चोर व्रज में घुसा पर स्वामी के अचानक आ जाने पर उससे धमकाया जाकर भाग खड़ा होता है उसी प्रकार बीमारी शरीर में घुसी, परन्तु इतने में ओषधि आ गई और उससे धमकायी जाकर मानो बीमारी भाग गई। आचार्य दयानन्द ने उपमा का यही स्वरूप लिया है। गौ की चोरी नहीं हुई इसी प्रकार रोग शरीर के बल व किसी शक्ति को नष्ट नहीं कर पाया और भगा दिया गया। उव्वट आदि ने उपमा का पहला स्वरूप रखा है, आचार्य ने पिछला । पिछले का सौन्दर्य सुव्यक्त है।

    भावार्थ - भावार्थ - ओषधियाँ शरीर में प्रवेश करती हैं और रोगों को मार भगाती हैं। ओषधियाँ मानो चोर हैं जो रोगरूप गौ को हर लेती हैं अथवा ओषधियाँ मालिक हैं जो रोगरूप चोर को भगा देती हैं।

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