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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 40
    ऋषिः - विरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी स्वरः - षड्जः
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    पुन॑रू॒र्जा निव॑र्त्तस्व॒ पुन॑रग्नऽइ॒षायु॑षा। पुन॑र्नः पा॒ह्यꣳह॑सः॥४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुनः॑। ऊ॒र्जा। नि। व॒र्त्त॒स्व॒। पुनः॑। अ॒ग्ने॒। इ॒षा। आयु॑षा। पुनः॑। नः॒। पा॒हि॒। अꣳह॑सः ॥४० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनरूर्जा निवर्तस्व पुनरग्न इषायुषा । पुनर्नः पाह्यँहसः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुनः। ऊर्जा। नि। वर्त्तस्व। पुनः। अग्ने। इषा। आयुषा। पुनः। नः। पाहि। अꣳहसः॥४०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 40
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    पदार्थ -

    १. पिछले मन्त्रों में ‘विरूप’ को प्रभु ने लोकहित के उद्देश्य से प्रजाओं में ज्ञान-प्रचार का निर्देश किया था। ‘विरूप’ उस निर्देश को शिरोधार्य करके प्रभु से प्रार्थना करता है। प्रभु के निर्देश को मानने से वह ‘वत्सप्री’ बनता है और कहता है कि हे प्रभो! आप ( पुनः ) = फिर ऊर्जा, बल और प्राणशक्ति के साथ ( निवर्त्तस्व ) = मुझे प्राप्त होओ। आप शक्ति देंगे तभी मैं इस ज्ञान-प्रचार के कार्य को कर पाऊँगा। २. हे ( अग्ने ) = मार्गदर्शक प्रभो ! ( पुनः ) = फिर ( इषा ) = प्रेरणा से तथा ( आयुषा ) = दीर्घजीवन के वरदान के साथ मुझे प्राप्त होओ। आपकी प्रेरणा ही तो मुझे वह प्रकाश दिखाएगी जिसे मुझे औरों के प्रति देना है। ३. ( पुनः ) = फिर ( नः ) = मुझे ( अंहसः ) = पाप से ( पाहि ) = बचाइए। अपने इस दीर्घ जीवन में मैं पाप से बचा रहूँ। मैं स्वयं पाप में पड़ जाऊँगा तो औरों को क्या मार्ग दिखाऊँगा। आपकी कृपा से मैं विषयों के प्रति झुकाववाला न होऊँ।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम प्रभु से बल व प्राणशक्ति प्राप्त करें। प्रभु की प्रेरणा को सुनें। दीर्घजीवनवाले हों। पाप से सदा बचे रहें।

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