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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 41
    ऋषिः - विरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृद गायत्री स्वरः - षड्जः
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    स॒ह र॒य्या निव॑र्त्त॒स्वाग्ने॒ पिन्व॑स्व॒ धा॑रया। वि॒श्वप्स्न्या॑ वि॒श्वत॒स्परि॑॥४१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒ह। र॒य्या। नि। व॒र्त्त॒स्व॒। अग्ने॑। पिन्व॑स्व। धा॑रया। वि॒श्वप्स्न्येति॑ वि॒श्वऽप्स्न्या॑। वि॒श्वतः॑। परि॑ ॥४१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सह रय्या नि वर्तस्वाग्ने पिन्वस्व धारया । विश्वप्स्न्या विश्वतस्परि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सह। रय्या। नि। वर्त्तस्व। अग्ने। पिन्वस्व। धारया। विश्वप्स्न्येति विश्वऽप्स्न्या। विश्वतः। परि॥४१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 41
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    पदार्थ -

    १. हे ( अग्ने ) = मार्गदर्शक प्रभो! आप हमें ( रय्या सह ) = धन के साथ ( निवर्त्तस्व ) = प्राप्त होओ। संसार-यात्रा को चलाने के लिए धन आवश्यक है, परन्तु वह धन यदि प्रभु-स्मरण के साथ होता है तो हमें विषयों में फँसानेवाला नहीं होता, अतः ‘वत्सप्री’ उसी धन के लिए प्रार्थना करता है जो प्रभु-स्मरण से युक्त है। २. हे अग्ने! आप ( विश्वतः परि ) = सब ओर से उस ( धारया ) = धन की धारा से ( पिन्वस्व ) = हमें प्राप्त हों जो ( विश्वप्स्न्या ) = सबको खिलानेवाली हो, अर्थात् मैं धन तो प्राप्त करूँ, परन्तु उसी धन को जो मुझे लोकहित के कार्य में अधिक श्रमशील बनाए। उस धन से मैं अपने भोग-साधनों को न बढ़ाकर दुःखियों का दर्द दूर करने में उसका विनियोग करनेवाला बनूँ। मैं पराश्रित न होकर स्वतन्त्रता से ज्ञान का प्रसार कर सकूँ।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम प्रभु-कृपा से पर्याप्त धन प्राप्त करें, जिससे निर्भीकता से ज्ञान का प्रसार करनेवाले बन सके। एवं, आदर्श उपदेशक वही है जो १. सबल है। २. प्रभु-प्रेरणा को सुननेवाला है। ३. दीर्घ जीवनवाला है। ४. पाप से बचा रहता है। ५. पर्याप्त धनवाला है, जिससे पराधीन न हो जाए। ६. इसका धन भोगों में विनियुक्त न होकर लोकहित के लिए व्यय होता है।

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