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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 83
    ऋषिः - भिषगृषिः देवता - वैद्या देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    इष्कृ॑ति॒र्नाम॑ वो मा॒ताथो॑ यू॒यꣳ स्थ॒ निष्कृ॑तीः। सी॒राः प॑त॒त्रिणी॑ स्थन॒ यदा॒मय॑ति॒ निष्कृ॑थ॥८३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इष्कृ॑तिः। नाम॑। वः॒। मा॒ता। अथो॒ऽइत्यथो॑। यू॒यम्। स्थ॒। निष्कृ॑तीः। निष्कृ॑ती॒रिति॒ निःऽकृ॑तीः। सी॒राः। प॒त॒त्रिणीः॑। स्थ॒न॒। यत्। आ॒मय॑ति। निः। कृ॒थ॒ ॥८३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इष्कृतिर्नाम वो माताथो यूयँ स्थ निष्कृतीः । सीराः पतत्रिणी स्थन यदामयति निष्कृथ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इष्कृतिः। नाम। वः। माता। अथोऽइत्यथो। यूयम्। स्थ। निष्कृतीः। निष्कृतीरिति निःऽकृतीः। सीराः। पतत्रिणीः। स्थन। यत्। आमयति। निः। कृथ॥८३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 83
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    पदार्थ -
    १. गत मन्त्र के अनुसार जब ओषधियों के शोषक बल उद्गत होते हैं तब रोग नष्ट हो जाते हैं। इसी बात को प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि ये ओषधियाँ (इष्कृतिः) = [उपसर्गैकदेशलोप है, मूलशब्द निष्कृति है] व्याधि का विनाश करती हैं (नाम वः माता) = यह 'निष्कृति' तुम्हारी माता का नाम है। यह भूमि तुम्हारी माता है जो सचमुच आरोग्य का कारण है। २. (अथ उ) = और इसी कारण (यूयम्) = तुम भी (निष्कृतिः) = व्याधियों का निष्क्रमण करनेवाली (स्थ) = हो। तुम भी भूमिरूप माता से उत्पन्न होकर व्याधियों को दूर करनेवाली होती हो। २. (सीरा:) = [ सह इरया = अन्नेन वर्तन्ते] पथ्यान्न के साथ होनेवाली तुम (पतत्रिणीः स्थन) = [प्रसरणशीलाः] शरीर में व्याप्त होनेवाली हो। ३. (यत्) = जब ऐसा होता है तब (आमयति) = [रुजति आमयाविनि] रोगी में स्थित रोग को (निष्कृथ) = [निर्नाशयत] खूब नष्ट करती हो। ओषधियों का जब पथ्य के साथ प्रयोग होता है तब निश्चय से वे रोग को नष्ट करनेवाली होती हैं।

    भावार्थ - भावार्थ - उत्तम भूमि में उत्पन्न ओषधियाँ रोग को नष्ट करनेवाली होती हैं। इसी से इन्हें 'निष्कृति' नाम दिया गया है। ओषधि की गुणवत्ता के लिए उसके साथ पथ्य का प्रयोग भी आवश्यक है।

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