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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 70
    ऋषिः - कुमारहारित ऋषिः देवता - कृषीवला देवताः छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    घृ॒तेन॒ सीता॒ मधु॑ना॒ सम॑ज्यतां॒ विश्वै॑र्दे॒वैरनु॑मता म॒रुद्भिः॑। ऊर्ज॑स्वती॒ पय॑सा॒ पिन्व॑माना॒स्मान्त्सी॑ते॒ पय॑सा॒भ्या व॑वृत्स्व॥७०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तेन॑। सीता॑। मधु॑ना। सम्। अ॒ज्य॒ता॒म्। विश्वैः॑। दे॒वैः। अनु॑म॒तेत्यनु॑ऽमता। म॒रुद्भि॒रिति॑ म॒रुत्ऽभिः॑। ऊर्ज॑स्वती। पय॑सा। पिन्व॑माना। अ॒स्मान्। सी॒ते॒। पय॑सा। अ॒भि। आ। व॒वृ॒त्स्व॒ ॥७० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतेन सीता मधुना समज्यताँविश्वैर्देवैरनुमता मरुद्भिः । ऊर्जस्वती पयसा पिन्वमानास्मान्त्सीते पयसाभ्या ववृत्स्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    घृतेन। सीता। मधुना। सम्। अज्यताम्। विश्वैः। देवैः। अनुमतेत्यनुऽमता। मरुद्भिरिति मरुत्ऽभिः। ऊर्जस्वती। पयसा। पिन्वमाना। अस्मान्। सीते। पयसा। अभि। आ। ववृत्स्व॥७०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 70
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    पदार्थ -
    १. (सीता) = लाङ्गलपद्धति, हल की रेखा (मधुना घृतेन) = मधुर जल से (समज्यताम्) = संसिक्त की जाए। खारे पानी से सेचन होने पर भूमि के शीघ्र ही ऊसर हो जाने की आशंका होती है । 'स्यादूषः क्षारमृत्तिका' = क्षारमृत्तिका ही ऊसर है, उसमें कोई अन्न उपजेगा नहीं, अतः मधुर जल से सेचन नितान्त आवश्यक है। 'घृतेन मधुना' का प्रसिद्ध अर्थ भी यहाँ अप्रासंगिक नहीं, परन्तु घृत और शहद की खाद डालना आर्थिक दृष्टिकोण से बड़ा कठिन है। महाराष्ट्र में पेशवाओं ने ऐसा करके देखा तो आम के पेड़ों पर अत्यन्त मधुर आमों का उद्भव हुआ। २. (विश्वैः देवैः) [ऋतवो वै देवा :- श० ७।२।४।२६] = सब ऋतुओं से तथा (मरुद्भिः) = वर्षा की ईश मानसून की वायुओं से (अनुमता) = अङ्गीकृत हुई हे (सीते) = लाङ्गलपद्धते ! (पयसा) = जल से (पिन्वमाना) = पूरित होती हुई तू (ऊर्जस्वती) = बल व प्राणशक्तिप्रद अन्न-रसवाली होती हुई (अस्मान् अभि) = हमारी ओर (पयसा) = आप्यायन शक्ति से (आववृत्स्व) = सर्वथा वर्त्तमान हो, प्राप्त हो। ३. मन्त्रार्थ से निम्न बातें स्पष्ट हैं- [क] मधुर जल से सिंचाई होनी चाहिए । [ख] ऋतुओं की अनुकूलता अत्यन्त वाञ्छनीय है। [ग] वर्षा की वायु [monsoon winds] का समय पर चलना तो नितान्त आवश्यक है ही। [घ] इस सबके होने पर जो अन्न उत्पन्न होगा वह निश्चय से हमारा आप्यायन करनेवाला होगा।

    भावार्थ - भावार्थ- खेतों का सेचन मधुर जल से हो, ऋतुओं व वर्षा की वायुओं की अनुकूलता को हम हवि के द्वारा उपस्थित करने का प्रयत्न करें। ऐसा होने पर अन्न सबल होंगे और उनसे हमारा उत्तमता से आप्यायन होगा।

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