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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 106
    ऋषिः - पावकाग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    अग्ने॒ तव॒ श्रवो॒ वयो॒ महि॑ भ्राजन्तेऽअ॒र्चयो॑ विभावसो। बृह॑द्भानो॒ शव॑सा॒ वाज॑मु॒क्थ्यं दधा॑सि दा॒शुषे॑ कवे॥१०६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। तव॑। श्रवः॑। वयः॑। महि॑। भ्रा॒ज॒न्ते॒। अ॒र्चयः॑। वि॒भा॒व॒सो॒ इति॑ विभाऽवसो। बृह॑द्भानो॒ इति॒ बृह॑त्ऽभानो। शव॑सा। वाज॑म्। उ॒क्थ्य᳕म्। दधा॑सि। दा॒शुषे॑। क॒वे॒ ॥१०६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने तव श्रवो वयो महि भ्राजन्तेऽअर्चयो विभावसो । बृहद्भानो शवसा वाजमुक्थ्यन्दधासि दाशुषे कवे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। तव। श्रवः। वयः। महि। भ्राजन्ते। अर्चयः। विभावसो इति विभाऽवसो। बृहद्भानो इति बृहत्ऽभानो। शवसा। वाजम्। उक्थ्यम्। दधासि। दाशुषे। कवे॥१०६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 106
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    पदार्थ -
    १. 'मनुष्य अपने जीवन को उन्नत करके गर्वित न हो जाए', अतः वह प्रभु का मेरे स्मरण करते हुए कहता है कि (अग्ने) = मेरी सब उन्नति के साधक प्रभो! (तव श्रवः) = जीवन में जो कुछ भी थोड़ी-बहुत अच्छाई आ पाई है वह तेरी श्री-कीर्ति है, उसमें मेरा कुछ नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि [तव] (वय:) = मेरा यह जीवन आपका ही है-आपकी कृपा से ही मैं जी रहा हूँ। यह जीवन प्राप्त भी आपकी कृपा से ही हुआ है। २. हे (विभावसो) = ज्ञान-धन प्रभो! (अर्चयः) = आपकी ज्ञानदीप्तियाँ (महि भ्राजन्ते) = खूब ही चमकती हैं। मेरे हृदय में भी आपके ही ज्ञान का प्रकाश होता है। मैं अपनी मूर्खता से हृदय पर राग-द्वेष का ऐसा आवरण डाल बैठता हूँ जो मेरे हृदय को मलिन कर देता है और मुझे उस ज्ञान के प्रकाश को देखने के अयोग्य कर देता है। ३. हे (बृहद्भानो) = [बृहि वृद्धौ] वृद्धि के कारणभूत ज्ञानमय प्रभो ! आपके उस ज्ञान को प्राप्त करके ही तो मेरी सब प्रकार की उन्नति सम्भव होती है। आप (शवसा) = [शवतिर्गतिकर्मा] गति के हेतु से मेरे जीवन को क्रियाशील बनाने के हेतु से (उक्थ्यं वाजम्) = स्तुत्य बल को (दधासि) = धारण करते हैं। आपकी कृपा से मुझे शक्ति प्राप्त होती है, जिसके द्वारा मैं सदा लोकहित में प्रवृत्त होता हूँ और इस प्रकार मेरी शक्ति मेरे यश का कारण बनती है। (उक्थ्यं वाजम्) = [यशो बलम्] आप मुझे यशस्वी बल प्राप्त कराते हैं। ४. हे कवे क्रान्तदर्शिन् प्रभो! आप प्रत्येक वस्तु की वास्तविकता को जानते हैं मेरी स्थिति को भी मुझसे अधिक अच्छी प्रकार आप समझते हैं और मुझ (दाशुषे) = दाश्वान् के लिए आपके प्रति अपना समर्पण करनेवाले के लिए - आप यशस्वी बल देते हैं। आपकी शक्ति से शक्तिसम्पन्न होकर मैं संसार में शुभ कार्यों में प्रवृत्त हो पाता हूँ। इन सब कार्यों के अन्दर रहनेवाला यश आपका ही है। आपकी कृपा से मैं वस्तुतत्त्व को समझँगा और किसी भी कार्य का गर्व न करूँगा।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु ज्ञान देते हैं-वही यशस्वी बल प्राप्त कराते हैं। सब प्रभु की ही महिमा है - हमारा जीवन भी उस प्रभु की ही कृपा से है। हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले बनें और इस प्रकार उन्नत होकर अभिमान से फिर अवनत न हो जाएँ।

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