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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 46
    ऋषिः - सोमाहुतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    सं॒ज्ञान॑मसि काम॒ध॑रणं॒ मयि॑ ते काम॒धर॑णं भूयात्। अ॒ग्नेर्भस्मा॑स्य॒ग्नेः पुरी॑षमसि॒ चित॑ स्थ परि॒चित॑ऽऊर्ध्व॒चितः॑ श्रयध्वम्॥४६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सं॒ज्ञान॒मिति॑ स॒म्ऽज्ञान॑म्। अ॒सि॒। का॒म॒धर॑ण॒मिति॑ काम॒ऽधर॑णम्। मयि॑। ते॒। का॒म॒धर॑ण॒मिति॑ काम॒ऽधर॑णम्। भू॒या॒त्। अ॒ग्नेः। भस्म॑। अ॒सि॒। अ॒ग्नेः। पुरी॑षम्। अ॒सि॒। चितः॑। स्थ॒। प॒रि॒चित॒ इति॑ परि॒ऽचितः॑। ऊ॒र्ध्व॒चित॒ इत्यू॑र्ध्व॒ऽचितः॑। श्र॒य॒ध्व॒म् ॥४६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सञ्ज्ञानमसि कामधरणम्मयि ते कामधरणम्भूयात् । अग्नेर्भस्मास्यग्नेः पुरीषमसि चित स्थ परिचितऽऊर्ध्वचितः श्नयध्वम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    संज्ञानमिति सम्ऽज्ञानम्। असि। कामधरणमिति कामऽधरणम्। मयि। ते। कामधरणमिति कामऽधरणम्। भूयात्। अग्नेः। भस्म। असि। अग्नेः। पुरीषम्। असि। चितः। स्थ। परिचित इति परिऽचितः। ऊर्ध्वचित इत्यूर्ध्वऽचितः। श्रयध्वम्॥४६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 46
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    पदार्थ -

    १. प्रभु गत मन्त्र के अनुसार वासनाओं को दूर करनेवाले सोमाहुति से कहते हैं कि ( संज्ञानम् असि ) = तू उत्तम ज्ञानवाला है। उस ज्ञानवाला है जिस ज्ञान से देवलोग परस्पर प्रेमपूवर्क मिलकर चलते हैं, जिस ज्ञान से वासना ‘प्रेम’ में परिवर्तित हो जाती है। २. ( कामधरणम् ) = काम का तू धरणकर्त्ता है—काम को तू नियन्त्रणपूर्वक अपने में धारण करनेवाला है। ( मयि ) = मुझ प्रभु में ( ते ) = तेरा ( कामधरणम् ) = काम [ इच्छा ] का धारण ( भूयात् ) = हो, अर्थात् तू मेरी प्राप्ति की कामनावाला बन। जीवन का लक्ष्य प्रभु-प्राप्ति हो। सब क्रियाएँ इसी उद्देश्य से की जाएँ। ३. ( अग्नेः ) = अग्रेणी प्रभु का तू ( भस्म ) = दीपन करनेवाला ( असि ) = है, अर्थात् तू अपने हृदय-मन्दिर में प्रभु की ज्योति को जगाने के लिए प्रयत्नशील रहता है। ४. ( अग्नेः पुरीषम् असि ) = तू उस प्रभु के [ पढ पालनपूरणयोः ] पालनात्मक कर्म को करनेवाला है। ५. इस पालनात्मक कर्म को करनेवाले तुम लोग ( चितःस्थ ) = ज्ञानी हो। ज्ञानी पुरुष ही ठीक पालन कर पाता है, अज्ञान में तो वह भला करना चाहता हुआ भी बुरा कर बैठता है। ६. ( परिचितः ) = तुम लोगों के परिचयवाले बनते हो, उनकी मनोवृत्ति को समझते हो। मनोविज्ञान को न समझनेवाले व्यक्ति कल्याण करने के प्रकार में ग़लती कर जाते हैं। ७. ( ऊर्ध्वचितः ) = उत्कृष्ट ज्ञानवाले हो, अथवा ज्ञान के द्वारा लोगों को उत्कृष्ट स्थिति में प्राप्त करानेवाले हो। ८. ( श्रयध्वम् ) = [ श्रिञ् सेवायाम् ] तुम लोगों की सेवा करनेवाले बनो। लोकहित ही तुम्हारे जीवन का उद्देश्य हो।

    भावार्थ -

    भावार्थ — ज्ञानी बनो। प्रभु-प्राप्ति की कामना करो। ज्ञानी बनकर लोकसेवक बनो।

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