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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 22
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - यज्ञवानात्मा देवता छन्दः - भुरिक् शक्वरी स्वरः - धैवतः
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    अ॒ग्निश्च॑ मे घ॒र्मश्च॑ मे॒ऽर्कश्च॑ मे॒ सूर्य॑श्च मे प्रा॒णश्च॑ मेऽश्वमे॒धश्च॑ मे पृथि॒वी च॒ मेऽदि॑तिश्च मे॒ दिति॑श्च मे॒ द्यौश्च॑ मे॒ऽङ्गुल॑यः॒ शक्व॑रयो॒ दिश॑श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः। च॒। मे॒। घ॒र्मः। च॒। मे॒। अ॒र्कः। च॒। मे॒। सूर्यः। च॒। मे॒। प्रा॒णः। च॒। मे॒। अ॒श्व॒मे॒धः। च॒। मे॒। पृ॒थि॒वी। च॒। मे॒। अदि॑तिः। च॒। मे॒। दितिः॑। च॒। मे॒। द्यौः। च॒। मे॒। अ॒ङ्गुल॑यः। शक्व॑रयः। दिशः॑। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निश्च मे घर्मश्च मेर्कश्च मे सूर्यश्च मे प्राणश्च मे स्वमेधश्च मे पृथिवी च मेदितिश्च मे दितिश्च मे द्यौश्च मेङ्गुलयः शक्वरयो दिशश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। च। मे। घर्मः। च। मे। अर्कः। च। मे। सूर्यः। च। मे। प्राणः। च। मे। अश्वमेधः। च। मे। पृथिवी। च। मे। अदितिः। च। मे। दितिः। च। मे। द्यौः। च। मे। अङ्गुलयः। शक्वरयः। दिशः। च। मे। यज्ञेन। कल्पन्ताम्॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 22
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    पदार्थ -
    १. (अग्निः च मे) = मेरे जीवन के अन्दर अग्नि हो, (धर्मः च मे) = मैं शक्ति की उष्णता - [गरमी] - वाला होऊँ। मैं निरन्तर गतिशील और अग्रगतिशील बनूँ । इस गतिशीलता से मेरी शक्ति बनी रहे। २. इस क्रिया और उससे होनेवाली शक्ति के साथ (अर्क: च मे) = मुझमें उपासना हो और (सूर्यः च मे) = इस उपासना से मेरे अन्दर ज्ञान के सूर्य का उदय हो । ३. इस ज्ञान - सूर्य के उदय के साथ प्रभु-उपासन से प्राणश्च मे मुझे प्राणशक्ति प्राप्त हो । (अश्वमेधः च मे) = [राष्ट्रं वा अश्वमेधः ] मैं अपने प्राणों से राष्ट्र की सेवा करनेवाला बनूँ। ४. राष्ट्र की सेवा के लिए (पृथिवी च मे) = [प्रथ विस्तारे] मुझे विस्तृतशक्तियोंवाला शरीर प्राप्त हो । (अदितिः च मे) = मेरे इस शरीर में अखण्डन हो, मेरे स्वास्थ्य की किसी प्रकार से हानि न हो। ५. (दितिः च मे) = मुझमें वासना - विनाश के लिए खण्डनशक्ति हो और (द्यौः च मे) = वासना - विनाश से मेरे जीवन में प्रकाश की ज्योति हो [दिव् = प्रकाश] ६. इस प्रकार की ज्योति से मेरी (अङ्गुलयः) = [ अगि गतौ ] कर्मों में सदा व्याप्त रहनेवाली अंगुलियाँ सचमुच (शक्वरयः) = शक्तिशाली हों। मेरी इन अंगुलियों के कर्मों का निर्देश करनेवाली (दिशः च मे) = दिशाएँ मेरी हों, अर्थात् इन प्राच्यादि दिशाओं से बोध लेनेवाला मैं बनूँ । 'प्राची' दिशा मुझे यह बोध दे कि मैं भी 'आगे बढूँ' [प्र अञ्च्] । 'अवाची' दिशा का मुझे यह बोध हो कि मैं आगे बढ़कर भी विनीत बना रहूँ [ अव अञ्च ] । 'प्रतीची' दिशा मुझे प्रत्याहार - इन्द्रियों को विषयों से वापस लाने का पाठ पढ़ाए और अन्त में 'उदीची' से मैं उन्नत होने का पाठ पढूँ [उद् अञ्च्]। इन दिशाओं के निर्देशों के अनुसार ही मेरी अंगुलियाँ निरन्तर कार्यों को करनेवाली बनें। ये सबकी सब बातें (यज्ञेन) = प्रभु के सम्पर्क से (कल्पन्ताम्) = सम्पन्न हों।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभुकृपा से मुझमें आगे बढ़ने का उत्साह हो, उससे मैं शक्तिसम्पन्न बना रहूँ । मुझमें प्रभु-उपासन हो, उससे मुझमें ज्ञान के सूर्य का उदय हो। मुझमें प्राणशक्ति हो और वह राष्ट्र सेवा में लगे। मेरे शरीर की शक्तियों का विस्तार हो और वहाँ रोगजनित खण्डन न हों। वासनाओं का खण्डन करके मैं ज्ञान के प्रकाशवाला बनूँ। उस ज्ञान के अनुसार क्रिया में व्यापृत होऊँ । मेरी अंगुलियाँ शक्तिशाली बनें और वे अपने कार्यों का निर्देश प्राची आदि दिशाओं से लें।

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