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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 61
    ऋषिः - गालव ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    उद्बु॑ध्यस्वाग्ने॒ प्रति॑ जागृहि॒ त्वमि॑ष्टापू॒र्ते सꣳसृजेथाम॒यं च॑। अ॒स्मिन्त्स॒धस्थे॒ऽअध्युत्त॑रस्मि॒न् विश्वे॑ देवा॒ यज॑मानश्च सीदत॥६१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्। बु॒ध्य॒स्व॒। अ॒ग्ने॒। प्रति॑। जा॒गृहि॒। त्वम्। इ॒ष्टा॒पू॒र्त्ते इती॑ष्टाऽपू॒र्त्ते। सम्। सृ॒जे॒था॒म्। अ॒यम्। च॒। अ॒स्मिन्। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। अधि॑। उत्त॑रस्मि॒न्नित्युत्ऽत॑रस्मिन्। विश्वे॑। दे॒वाः॒। यज॑मानः। च॒। सी॒द॒त॒ ॥६१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते सँसृजेथामयं च । अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन्विस्वे देवा यजमानाश्च सीदत ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। बुध्यस्व। अग्ने। प्रति। जागृहि। त्वम्। इष्टापूर्त्ते इतीष्टाऽपूर्त्ते। सम्। सृजेथाम्। अयम्। च। अस्मिन्। सधस्थ इति सधऽस्थे। अधि। उत्तरस्मिन्नित्युत्ऽतरस्मिन्। विश्वे। देवाः। यजमानः। च। सीदत॥६१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 61
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    पदार्थ -
    १. पिछले मन्त्र के 'इष्टापूर्त' का ही वर्णन करते हुए कहते हैं कि (अग्ने) = अग्नि के उद्बोधन के बिना उसमें घृत व हवि का समर्पण 'भस्मनि हुतम्' इस वाक्यांश के अनुसार व्यर्थ ही है । (प्रतिजागृहि) = तू इस कुण्ड के कोने-कोने में जाग, अर्थात् अच्छी प्रकार प्रबुद्ध हो जा। यह सम्यक् उबुद्ध अग्नि ही अपने में डाले गये घृत और हविर्द्रव्यों को सूक्ष्म कणों में विभक्त करके सर्वत्र फैलाएगा। अप्रचण्ड अग्नि में छेदन - भेदन की शक्ति उतनी प्रबल नहीं हो सकती । २. अब अग्नि के प्रचण्ड हो जाने पर (त्वम्) = हे अग्ने ! तू (अयं च) = और यह यजमान मिलकर (इष्टापूर्ते) = इष्ट और आपूर्त के कर्मों को (सं सृजेथाम्) = सम्यक्तया करनेवाले बनो। यजमान घृत व हवि को अग्नि के साथ मिलाने [ यज् संगतिकरण] के 'इष्ट' रूप कार्य को करें, अग्नि में इन पदार्थों की आहुति दे तथा अग्नि उन आहुत पदार्थों को अत्यन्त सूक्ष्म कणों में विभक्त करके आदित्यमण्डल तक सारे वायुमण्डल में (आ) = चारों ओर (पूर्त) = भर दे। 'इष्ट' यजमान का कार्य है, तो 'आपूर्त' अग्नि का। ३. घर के अन्दर जो 'हविर्धान' = अग्निहोत्र का कमरा है अस्मिन् सधस्थे उस सधस्थ में मिलकर बैठने के स्थान में (अधि उत्तरस्मिन्) = इस वेदिरूप सर्वोत्कृष्ट स्थान में (विश्वेदेवाः) = घर के सब देव (यजमानश्च) = और स्वभावतः यज्ञशील घर का मुखिया सब मिलकर (सीदत) = बैठें। घर में अग्निहोत्र को एक सामूहिक कार्य का रूप दिया जाए। उसमें घर के सभी सभ्य उपस्थित हों । ४. यह यज्ञवेदि 'सधस्थ है सबके मिलकर बैठने की जगह है। [क] इस स्थान पर घर के सभी व्यक्ति एकत्र होकर परस्पर धर्मसूत्र में बद्ध होते हैं। उन सबको यह यज्ञ परस्पर स्नेह व प्रेम में बाँधनेवाला बनता है। [ख] इसलिए भी सधस्थ होना चाहिए कि प्रभु के उपासन के समय घर में केवल उपासन का ही कार्य हो, अन्य कोई कार्य न हो । ५. यह उत्तर - सर्वोत्कृष्ट स्थान है, चूँकि इस स्थान पर [क] प्रभु उपासन होता है, [ख] वायु अत्यन्त शुद्ध होती है [ग] श्वास के साथ अन्दर गये हुए सूक्ष्म औषध द्रव्य रोगों का दहन करते हुए हमें नीरोग बनाते हैं । ६. इस प्रकार यह यज्ञ हमें उन्नत करता हुआ प्रभु की ओर ले चलता है और क्रमश: उन्नत होते हुए हम प्रभु का ही छोटा रूप बनते हैं और मन्त्र के ऋषि 'गालव' होते हैं, प्रभु की ओर जानेवाले, उसी के छोटे रूप।

    भावार्थ - भावार्थ - उद्बुद्ध अग्नि में हम सब मिलकर यज्ञिय पदार्थों की आहुति देनेवाले हों।

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