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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 52
    ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्षी जगती स्वरः - निषादः
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    इ॒मौ ते॑ प॒क्षाव॒जरौ॑ पत॒त्त्रिणौ॒ याभ्या॒ रक्षा॑स्यप॒हस्य॑ग्ने। ताभ्यां॑ पतेम सु॒कृता॑मु लो॒कं यत्र॒ऽऋष॑यो ज॒ग्मुः प्र॑थम॒जाः पु॑रा॒णाः॥५२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मौ। ते॒। प॒क्षौ। अ॒जरौ॑। प॒त॒त्रिणौ॑। याभ्या॑म्। रक्षा॑सि। अ॒प॒हꣳसीत्य॑प॒ऽहꣳसि॑। अ॒ग्ने॒। ताभ्या॑म्। प॒ते॒म॒। सु॒कृता॒मिति॑ सु॒ऽकृता॑म्। ऊ॒ऽइत्यँू॑। लो॒कम्। यत्र॑। ऋष॑यः। ज॒ग्मुः। प्र॒थ॒म॒जा इति॑ प्रथम॒ऽजाः। पु॒रा॒णाः ॥५२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमौ ते पक्षावजरौ पतत्रिणौ याभ्याँ रक्षाँस्यपहँस्यग्ने । ताभ्याम्पतेम सुकृतामु लोकँयत्रऽऋषयो जग्मुः प्रथमजाः पुराणाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इमौ। ते। पक्षौ। अजरौ। पतत्रिणौ। याभ्याम्। रक्षासि। अपहꣳसीत्यपऽहꣳसि। अग्ने। ताभ्याम्। पतेम। सुकृतामिति सुऽकृताम्। ऊऽइत्यँू। लोकम्। यत्र। ऋषयः। जग्मुः। प्रथमजा इति प्रथमऽजाः। पुराणाः॥५२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 52
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    पदार्थ -
    १. प्रभु शुनःशेप से कहते हैं कि (इमौ) = गतमन्त्र में वर्णित ज्ञान की दीप्ति और बल [घृत+शवस्], ब्रह्म और क्षत्र (ते) = तेरे (अजरौ) = कभी जीर्ण न होनेवाले (पक्षौ) = पंख है, अथवा [ पक्ष परिग्रहे] ये दो तेरे अविनश्वर परिग्रह हैं। २. (पतत्रिणौ) = ये तेरे उत्पतन- ऊर्ध्वगमन, उत्थान व उन्नति के कारणभूत हैं । ३. वस्तुतः हे (अग्ने) = उन्नति व अग्रगति के साधक जीव ! ये तेरे वे पंख हैं, परिग्रह हैं (याभ्याम्) = जिनसे (रक्षांसि) = सब राक्षसी वृत्तियों को (अपहंसि) = तू दूर विनष्ट कर देता है। ज्ञान और बल के साथ बुराइयों का निवास नहीं है। सब मल अन्धकार व अज्ञान में पनपते हैं और सब विकार निर्बल को ही सतानेवाले हैं। ४. (ताभ्याम्) = इन ज्ञान और बल से हम (उ) = निश्चय से सुकृताम् पुण्यशालियों के (लोकम्) = लोक को (पतेम) = जाएँ। ५. उन लोकों में जाएँ (यत्र) = जहाँ (जग्मुः) = जाते हैं, कौन? [क] (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा लोग, जिनके मस्तिष्क ज्ञान से परिपूर्ण हैं। [ख] (प्रथमजा:) = [ प्रथ विस्तारे] अत्यन्त विस्तृत प्रादुर्भाववाले। जिनके हृदय अत्यन्त विस्तार व विकासयुक्त हैं। तंगदिली ने जिनकी सब उन्नतियों को समाप्त नहीं कर दिया है। [ग] (पुराणा:) = [पुरापि नवाः] जो शरीर में बहुत पहले से होते हुए भी, अर्थात् बड़े दीर्घायुष्य को प्राप्त हुए भी, ९० व १०० साल में पहुँचकर भी नवीन से ही प्रतीत होते हैं, जिनमें बुढ़ापे के निशान प्रकट नहीं होते, इस प्रकार के सनत्कुमार लोग ही पुण्यशालियों के लोकों को प्राप्त होते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- हम मस्तिष्क में ज्ञान व शरीर में बल को धारण करके राक्षसीवृत्तियों से दूर होते हुए ऊपर उठते हुए उन लोकों को प्राप्त करें, जिनको पुण्यशील, तत्त्वज्ञानी ऋषि, विशाल - हृदय मुनि तथा पूर्ण स्वस्थ दीर्घजीवी पुण्यात्मा प्राप्त किया करते हैं।

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