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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 20
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - यज्ञानुष्टानात्मा देवता छन्दः - स्वराडतिधृतिः स्वरः - षड्जः
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    आ॒ग्र॒य॒णश्च॑ मे वैश्वदे॒वश्च॑ मे ध्रु॒वश्च॑ मे वैश्वान॒रश्च॑ मऽऐन्द्रा॒ग्नश्च॑ मे म॒हावै॑श्वदेवश्च मे मरुत्व॒तीया॑श्च मे॒ निष्के॑वल्यश्च मे सावि॒त्रश्च॑ मे सारस्व॒तश्च॑ मे पात्नीव॒तश्च॑ मे हारियोज॒नश्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ग्र॒य॒णः। च॒। मे॒। वै॒श्व॒दे॒व इति॑ वैश्वऽदे॒वः। च॒। मे॒। ध्रु॒वः। च॒। मे॒। वै॒श्वा॒न॒रः। च॒। मे॒। ऐ॒न्द्रा॒ग्नः। च॒। मे॒। म॒हावै॑श्वदेव॒ इति॑ म॒हाऽवै॑श्वदेवः। च॒। मे॒। म॒रु॒त्व॒तीयाः॑। च॒। मे॒। निष्के॑वल्यः। निःके॑वल्य॒ इति॒ निःऽके॑वल्यः। च॒। मे॒। सा॒वि॒त्रः। च॒। मे॒। सा॒र॒स्व॒तः। च॒। मे॒। पा॒त्नी॒व॒त इति॑ पात्नीऽव॒तः। च॒। मे॒। हा॒रि॒यो॒ज॒न इति॑ हारिऽयोज॒नः। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आग्रयाणश्च मे वैश्वदेवश्च मे धु्रवश्च मे वैश्वानरश्च मऽऐन्द्राग्नश्च मे महावैश्वदेवश्च मे मरुत्वतीयाश्च मे निष्केवल्यश्च मे सावित्रश्च मे सारस्वतश्च मे पत्नीवतश्च मे हारियओजनश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आग्रयणः। च। मे। वैश्वदेव इति वैश्वऽदेवः। च। मे। ध्रुवः। च। मे। वैश्वानरः। च। मे। ऐन्द्राग्नः। च। मे। महावैश्वदेव इति महाऽवैश्वदेवः। च। मे। मरुत्वतीयाः। च। मे। निष्केवल्यः। निःकेवल्य इति निःऽकेवल्यः। च। मे। सावित्रः। च। मे। सारस्वतः। च। मे। पात्नीवत इति पात्नीऽवतः। च। मे। हारियोजन इति हारिऽयोजनः। च। मे। यज्ञेन। कल्पन्ताम्॥२०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 20
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    पदार्थ -
    १. (आग्रयणः च मे) = [अग्रे अयनं येन ] मेरे अन्दर आगे चलने की वृत्ति हो और इसी वृत्ति के परिणामरूप (वैश्वदेवः च मे) = मेरा जीवन सब दिव्य गुणोंवाला हो । २. (ध्रुवः च मे) = मुझमें ध्रुवता - न्यायमार्ग से विचलित न होने की भावना हो तथा (वैश्वानरः च मे) = मेरा जीवन विश्वनरहित की भावना से ओत-प्रोत हो। मैं सब लोगों का भला करनेवाला बनूँ । ३. (ऐन्द्राग्नः च मे) = मेरा जीवन-यज्ञ इन्द्र व अग्नि देवतावाला हो। मैं जितेन्द्रिय बनूँ और आगे बढूँ। जितेन्द्रिय बनने व आगे बढ़ने के परिणामस्वरूप (महावैश्वदेवः च मे) = मेरा जीवन महनीय विश्वदेवोंवाला हो, अथवा महनीय विश्वदेवों के पुञ्ज प्रभुवाला हो। ४. (मरुत्वतीयाः च मे) = उस प्रभुवाला बनने के लिए मरुत्वतीय यज्ञ मुझमें चलें। मरुत् अर्थात् मैं नियमितरूप से प्राणायाम यज्ञ को करनेवाला बनूँ। इस प्राणायाम यज्ञ के द्वारा इन्द्रियों के दोषों का दहन करके (निष्केवल्यः च मे) = [ नितरां केवलं सुखं यस्मिन् तस्मिन् भव :- द० ] नितरां सुखमय स्थिति में होनेवाला ब्रह्मलोक मुझे प्राप्त हो। ५. (सावित्रः च मे सारस्वतः च मे) इस संसार में जीवन्मुक्त बनने पर मेरा जीवन सविता के यज्ञवाला तथा सरस्वती के यज्ञवाला हो, अर्थात् मैं सदा निर्माण व उत्पत्ति के यज्ञ में प्रवृत्त रहूँ तथा सरस्वती का उपासक, अर्थात् ज्ञान-साधना करनेवाला होऊँ। इस प्रकार मेरा निजू जीवन हो। इसके अतिरिक्त मैं अपने गृहस्थ जीवन में (पात्नीवतः च मे) प्रशस्तता से पत्नी के प्रति धर्म का पालन करनेवाला बनूँ और (हारियोजनः च मे) = मेरा हारियोजनयज्ञ चले, अर्थात् मैं अपने इन्द्रियरूप अश्वों को उत्तमता से शरीररूप रथ में जोतनेवाला बनूँ, [हरीणां अश्वानां योजयिता] और इस प्रकार अपनी जीवन यात्रा में आगे और आगे बढ़ चलूँ।

    भावार्थ - भावार्थ- मेरा जीवन मन्त्रवर्णित आग्रयण आदि यज्ञोंवाला हो। मैं आगे बढूँ। आगे बढ़ने के लिए ही इन्द्रियाश्वों को सदा शरीर रथ में जोते रक्खूँ, अर्थात् निरन्तर क्रियाशील बना रहूँ।

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