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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 77
    ऋषिः - उशना ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृद गायत्री स्वरः - षड्जः
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    त्वं य॑विष्ठ दा॒शुषो॒ नॄँः पा॑हि शृणु॒धी गिरः॑। रक्षा॑ तो॒कमु॒त त्मना॑॥७७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। य॒वि॒ष्ठ॒। दा॒शुषः॑। नॄन्। पा॒हि॒। शृ॒णु॒धि। गिरः॑। रक्ष॑। तो॒कम्। उ॒त। त्मना॑ ॥७७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वँयविष्ठ दाशुषो नऋृँ पाहि शृणुधी गिरः । रक्षा तोकमुत त्मना ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। यविष्ठ। दाशुषः। नॄन्। पाहि। शृणुधि। गिरः। रक्ष। तोकम्। उत। त्मना॥७७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 77
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र का उत्कील 'तेजस्विता की रक्षा' व यज्ञिय वृत्ति' के द्वारा प्रभु-प्राप्ति की कामना करनेवाला होने से 'उशनाः' नामवाला होता है। यह प्रभु की आराधना करता है कि (यविष्ठ) = हमारे दुर्गुणों को अधिक-से-अधिक पृथक् करनेवाले तथा सद्गुणों का हमारे साथ सम्पर्क करानेवाले प्रभो! [यु-मिश्रण व अमिश्रण] (त्वम्) = आप (दाशुषः) = आपके प्रति अपने को दे डालनेवाले, अपना अर्पण करनेवाले (नृ:) = हम लोगों को (पाहि) = रक्षित कीजिए। हमें दुर्गुणों से दूर व सद्गुणों के समीप करके हीनावस्था से बचाइए । २. (गिरः शृणुधी) = हमसे आप स्तुति-वाणियों को ही सुनिए, अर्थात् आपकी कृपा से हम ज्ञान से परिपूर्ण इन स्तुति - वाणियों को ही बोलनेवाले हों। हमारे मुख से कभी कोई अशुभ शब्द न निकले। ३. (उत) = और हे प्रभो! आप (त्मना) = स्वयं (तोकम्) = आपका पुत्र जो मैं हूँ उसकी (रक्ष) = रक्षा कीजिए। मैं आपका भजन करूँ आप मेरी रक्षा करें। आपकी कृपा से ही मैं आपका सुपुत्र बन पाऊँगा और आपका रक्षणीय होऊँगा। मेरी कामना है कि मैं आपको प्राप्त कर पाऊँ। ४. आपकी प्राप्ति के लिए [क] अधिक-से-अधिक अवगुणों को दूर करके सद्गुणों को प्राप्त करूँ [ यविष्ठ] [ख] आपके प्रति अपना अर्पण करनेवाला बनूँ [ दाशुषः] । [ग] मेरे मुख से ज्ञान व स्तुति की उत्तम वाणियाँ ही उच्चरित हों [गिरः ] [घ] मैं आपका सुपुत्र बनूँ [ तोकम्] ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु यविष्ठ हैं। दाश्वान् की रक्षा करते हैं। हमें चाहिए कि ज्ञान व स्तुति वाणियों का ही उच्चारण करें और प्रभु के सुपुत्र बनें।

    - सूचना - इस अन्तिम मन्त्र में उशनाः [ प्रभु की प्राप्ति की कामनावाला] प्रभु का सुपुत्र बनना चाहता है। प्रभु का सुपुत्र वही हो पाता है जो इस मानव जीवन में सोम की रक्षा के द्वारा अपने जीवन को ठीक परिपक्व करता है तथा सद्गृहस्थ बनकर उत्तम सन्तान को जन्म देकर 'प्रजापति' बनता है। इस 'प्रजापति' ऋषि के मन्त्र से ही अगले अध्याय का प्रारम्भ होता है

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