यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 35
ऋषिः - देवा ऋषयः
देवता - रसविद्याविद्विद्वान् देवता
छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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सं मा॑ सृजामि॒ पय॑सा पृथि॒व्याः सं मा॑ सृजाम्य॒द्भिरोष॑धीभिः। सो॒ऽहं वाज॑ꣳ सनेयमग्ने॥३५॥
स्वर सहित पद पाठसम्। मा। सृ॒जा॒मि॒। पय॑सा। पृ॒थि॒व्याः। सम्। मा। सृ॒जा॒मि। अ॒द्भिरित्य॒त्ऽभिः। ओष॑धीभिः। सः। अ॒हम्। वाज॑म्। स॒ने॒य॒म्। अ॒ग्ने॒ ॥३५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सम्मा सृजामि पयसा पृथिव्याः सम्मा सृजाम्यद्भिरोषधीभिः । सो हँवाजँ सनेयमग्ने ॥
स्वर रहित पद पाठ
सम्। मा। सृजामि। पयसा। पृथिव्याः। सम्। मा। सृजामि। अद्भिरित्यत्ऽभिः। ओषधीभिः। सः। अहम्। वाजम्। सनेयम्। अग्ने॥३५॥
विषय - अप् ओषधि
पदार्थ -
१. मैं (पृथिव्या:) = इस पृथिवी के पृथिवीरूप शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्गों के (पयसा) = आप्यायन [ओप्यायी वृद्धौ] से अथवा [पय:- रस] रस से (मा) = मुझे (सं सृजामि) = संसृष्ट करता हूँ, युक्त करता हूँ। मैं अपने सब अङ्गों को शक्तिशाली बनाता हूँ। २. इसी उद्देश्य से मैं (मा) = मुझे, अर्थात् अपने को (अद्भिः) = जलों से तथा (ओषधीभि:) = ओषधियों से (सं सृजामि) = संयुक्त करता हूँ, अर्थात् जलों व ओषधियों का प्रयोग करता हूँ। जल और ओषधियों के प्रयोग से सात्त्विक सोमशक्ति को प्राप्त करता हुआ मैं अपने सब अङ्गों का आप्यापन करनेवाला बनता हूँ। ३. (सः अहम्) = वह मैं अग्ने उन्नति-साधक प्रभो ! (वाजम्) = शक्ति को (सनेयम्) = प्राप्त करूँ। मैं शक्ति से सना हुआ हो जाऊँ। मेरे सब अङ्गों में शक्ति का सञ्चार हो जाए ।
भावार्थ - भावार्थ- हम सम्पूर्ण शरीर का आप्यायन करें। जलों व ओषधियों का प्रयोग करें और एक-एक अङ्ग को शक्ति से युक्त बनाने के लिए यत्नशील हों।
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