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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सभोशो देवता छन्दः - द्विपदा विराड गायत्री स्वरः - षड्जः
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    क्ष॒त्रस्य॒ योनि॑रसि क्ष॒त्रस्य॒ नाभि॑रसि। मा त्वा॑ हिꣳसी॒न्मा मा॑ हिꣳसीः॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्ष॒त्रस्य॑। योनिः॑। अ॒सि॒। क्ष॒त्रस्य॑। नाभिः॑। अ॒सि॒। मा। त्वा॒। हि॒ꣳसी॒त्। मा। मा॒। हि॒ꣳसीः॒ ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्षत्रस्य योनिरसि क्षत्रस्य नाभिरसि । मा त्वा हिँसीन्मा मा हिँसीः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    क्षत्रस्य। योनिः। असि। क्षत्रस्य। नाभिः। असि। मा। त्वा। हिꣳसीत्। मा। मा। हिꣳसीः॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 1
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अन्तिम शब्दों में 'अमृत, सोम व इन्दु' बनने का उल्लेख था। उससे पहले ९४वें मन्त्र के अन्तिम शब्द 'अप्सु राजा' थे, प्रजाओं में यह राजा बनता है। इसी राजा का उल्लेख इन शब्दों में करते हैं कि (क्षत्रस्य) = क्षतों से, घावों से त्राण करनेवाली शक्ति का तू (योनि असि:) = उत्पत्ति स्थान है, अर्थात् तू अपने में उस शक्ति को उत्पन्न करता है जो शक्ति प्रजा को हानि से बचाती है। २. (क्षत्रस्य) = सम्पूर्ण बल का (नाभिः असि) = तू अपने में बन्धन करनेवाला है [नह बन्धने]। तू अपने में शक्ति का बन्धन करते हुए शक्ति का केन्द्र बनता है। ३. शक्ति का केन्द्र बनने के कारण ही (त्वा) = तुझे (मा हिंसीत्) = कोई भी रोग हिंसित करनेवाला न हो। यह वीर्य का संयम तुझे सब रोगों से बचानेवाला हो। ४. तू मा=मुझे मा हिंसी: नष्ट मत कर। प्रभु मन्त्र के ऋषि 'प्रजापति' से कहते हैं कि तू मेरा भी विस्मरण न होने दे, अर्थात् प्रजापति को चाहिए कि वह 'प्रभु का ध्यान अवश्य करें ताकि उसे शक्ति व ऐश्वर्य आदि के कारण अभिमान न हो जाए और न ही वह विषय-प्रवण बन जाए । यह अपनी रक्षा करनेवाला व्यक्ति प्रजा की ठीक प्रकार से रक्षा कर पाता है और प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'प्रजापति' बनता है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम बल के उत्पत्ति-स्थान व बल का केन्द्र बनने का प्रयत्न करें। यह बल का केन्द्र बनना हमें रोगों में फँसने से बचाए । इसी उद्देश्य से हम प्रभु का सदा स्मरण करें।

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