यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 31
अध्व॑र्यो॒ऽअद्रि॑भिः सु॒तꣳ सोमं॑ प॒वित्र॒ऽआ न॑य। पु॒ना॒हीन्द्रा॑य॒ पात॑वे॥३१॥
स्वर सहित पद पाठअध्व॑र्यो॒ऽइत्यध्व॑र्यो। अद्रि॑भि॒रित्यद्रि॑ऽभिः। सु॒तम्। सोम॑म्। प॒वित्रे॑। आ। न॒य॒। पु॒नी॒हि। इन्द्रा॑य। पात॑वे ॥३१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अध्वर्या अद्रिभिः सुतँ सोमम्पवित्रऽआनय । पुनीहीन्द्राय पातवे ॥
स्वर रहित पद पाठ
अध्वर्योऽइत्यध्वर्यो। अद्रिभिरित्यद्रिऽभिः। सुतम्। सोमम्। पवित्रे। आ। नय। पुनीहि। इन्द्राय। पातवे॥३१॥
विषय - इन्द्राय - पातवे
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु-प्राप्ति के मार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति 'अध्वर्यु' होता है, अध्वर को अपने साथ जोड़ता है। गतमन्त्र में इसे ही 'ऋतावृधू' कहा था। इस अध्वर्यु से कहते हैं कि हे (अध्वर्यो) = अहिंसक मनोवृत्ति को अपने साथ जोड़नेवाले यज्ञशील पुरुष ! (अद्रिभिः) = पाषाणतुल्य दृढ़ शरीरों के निर्माण के हेतु से (सुतम्) = उत्पन्न किये गये (सोमम्) = इस सोम को, वीर्य को (पवित्रे) = जीवन की पवित्रता की साधनभूत ज्ञानाग्नि में (आनय) = सर्वथा प्राप्त करनेवाला बन, अर्थात् इस वीर्य की ऊर्ध्वगति करते हुए तू इसको अपनी ज्ञानाग्नि का ईंधन बना। यह ज्ञानाग्नि समिद्ध होकर तेरे सब दोषों को (भस्मसात्) = करती है । २. इस प्रकार समिद्ध ज्ञानाग्नि से दोषों को भस्म करता हुआ (पुनाहि) = तू अपने को पवित्र बना और अपने को पवित्र करता हुआ तू (इन्द्राय) = परमैर्श्वशाली प्रभु की प्राप्ति के लिए हो तथा (पातवे) = अपने रक्षण के लिए हो।
भावार्थ - भावार्थ - शरीर में सोम की उत्पत्ति इसीलिए की गई है कि [क] शरीर पाषाणतुल्य दृढ़ हो तथा [ख] मनुष्य ज्ञानदीप्त होकर पवित्र जीवनवाला बने और [ग] अन्त में यह प्रभु को प्राप्त कर सके।
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal