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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 4
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सभापतिर्देवता छन्दः - निचृदार्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
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    को॑ऽसि कत॒मोऽसि॒ कस्मै॑ त्वा॒ काय॑ त्वा। सुश्लो॑क॒ सुम॑ङ्गल॒ सत्य॑राजन्॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कः। अ॒सि॒। क॒त॒मः। अ॒सि॒। कस्मै॑। त्वा॒। काय॑। त्वा॒। सुश्लो॒केति॒ सुऽश्लो॑क। सुम॑ङ्ग॒लेति॒ सुऽम॑ङ्गल। सत्य॑राज॒न्निति॒ सत्य॑ऽराजन् ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कोसि कतमोसि कस्मै त्वा काय त्वा । सुश्लोक सुमङ्गल सत्यराजन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कः। असि। कतमः। असि। कस्मै। त्वा। काय। त्वा। सुश्लोकेति सुऽश्लोक। सुमङ्गलेति सुऽमङ्गल। सत्यराजन्निति सत्यऽराजन्॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 4
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    पदार्थ -
    १. हे राजन्! तू (कः असि) = सुखस्वरूप है, चिड़चिड़े स्वभाव का नहीं। सदा प्रसन्न रहता है 'स्मितपूर्वाभिमाषी' है। २. (कतमः असि) = सुखस्वरूप होने से तू प्रजा के लिए भी अतिशयेन सुखकारी है। प्रजा को अधिक-से-अधिक सुखी करने का प्रयत्न करता है। ३. (कस्मै त्वा) = इस सुखस्वरूपता के लिए ही तुझे [अभिषिञ्चामि ] अभिषिक्त करता हूँ। ४. (काय त्वा) = प्रजा के रक्षण के द्वारा प्रजा को सुखी करने के लिए मैं तुझे अभिषिक्त करता हूँ। ५. इन अपने स्वभाविक कार्यों के कारण तू (सुश्लोक) = उत्तम यशवाला हुआ है। सारी प्रजाएँ तेरे गुणों का कीर्तन करती हैं। ६. (सुमङ्गल) = तू प्रजाओं का उत्तम मङ्गल करनेवाला है और ७. (सत्यराजन्) = तू सत्य से सदा चमकनेवाला है तथा सत्य से ही शासन करनेवाला है।

    भावार्थ - भावार्थ- राजा स्वयं प्रसन्नता के स्वभाववाला हो, प्रजा को प्रसन्न करनेवाला हो। इसी कारण उसका अभिषेक किया गया है। वह उत्तम शासन के कारण यशस्वी बने, प्रजा का मङ्गल करे और सत्य से चमक उठे, सत्य से ही सबका शासन करे ।

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