यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 33
ऋषिः - काक्षीवतसुकीर्त्तिर्ऋषिः
देवता - सोमो देवता
छन्दः - विराट् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोस्य॒श्विभ्यां॑ त्वा॒ सर॑स्वत्यै॒ त्वेन्द्रा॑य त्वा सु॒त्राम्ण॑ऽए॒ष ते॒ योनि॑र॒श्विभ्यां॑ त्वा॒ सर॑स्वत्यै॒ त्वेन्द्रा॑य त्वा सु॒त्राम्णे॑॥३३॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। त्वा॒। सर॑स्वत्यै। त्वा॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णे॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। त्वा॒। सर॑स्वत्यै। त्वा॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णे॑ ॥३३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उपयामगृहीतोस्यश्विभ्यां त्वा सरस्वत्यै त्वेन्द्राय त्वा सुत्राम्णेऽएष ते योनिरश्विभ्यान्त्वा सरस्वत्यै त्वेन्द्राय त्वा सुत्राम्णे ॥
स्वर रहित पद पाठ
उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। त्वा। सरस्वत्यै। त्वा। इन्द्राय। त्वा। सुत्राम्ण इति सुऽत्राम्णे। एषः। ते। योनिः। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। त्वा। सरस्वत्यै। त्वा। इन्द्राय। त्वा। सुत्राम्ण इति सुऽत्राम्णे॥३३॥
विषय - प्रभु का ग्रहण क्यों?
पदार्थ -
१. गतमन्त्र में 'प्रभु-ग्रहण' का उल्लेख था। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि वह प्रभुग्रहण कैसे होगा और प्रभु-ग्रहण क्यों आवश्यक है? (उपयामगृहीतः असि) = हे प्रभो! आप (उप) = उपासना द्वारा (याम) = यम-नियमों के धारण करने से गृहीत होते हैं, अर्थात् आपका धारण मैं तभी कर पाऊँगा जब [क] उपासना को अपनाऊँगा और [ख] उपासना के द्वारा मेरा जीवन यम-नियमों के बन्धन में बँधा हुआ होगा । २. (त्वा) = मैं आपको [क] (अश्विभ्याम्) = प्राणपान के लिए ग्रहण करता हूँ। आपकी उपासना से मेरी प्राणापान शक्ति की वृद्धि होगी। [ख] (सरस्वत्यै) = ज्ञान की अधिदेवता के लिए। आपके ग्रहण से मेरा ज्ञान बढ़ेगा तथा [ग] (इन्द्राय) = इन्द्रशक्ति के लिए। आपकी उपासना व ग्रहण से मेरा आत्मिक बल बढ़ता है और अन्त में (घ) (सुत्राम्णे) = उत्तमता से अपने त्राण के लिए। आपके धारण से मैं केवल शारीरिक रोगों से ही नहीं बचता, मानस विकारों से भी मैं अपनी रक्षा कर पाता हूँ। आपका धारण मुझे शरीर की व्याधियों के साथ मन की आधियों से भी बचाता है । ३. इस सारी बात का ध्यान करते हुए (एषः) = यह मैं (ते योनिः) = तेरा गृह बनता हूँ। मैं घर होऊँ और आप उस घर के पति । ऐसा मैं इसीलिए चाहता हूँ कि (अश्विभ्यां त्वा) = प्राणापान के लिए (सरस्वत्यै त्वा) = ज्ञान की अधिदेवता के लिए तथा (इन्द्राय) = प्राणशक्ति के विकास के लिए तथा (सुत्राम्णे) = उत्तमता से अपना धारण करने के लिए समर्थ हो सकूँ ।
भावार्थ - भावार्थ - उपासना व यम-नियमों के पालन से हम परमात्मा का अपने में ग्रहण करें, जिससे हमारी प्राणापानशक्ति की वृद्धि हो, ज्ञान का प्रकाश प्राप्त हो, हमारी आत्मशक्ति का विकास हो तथा हम उत्तमता से अपना त्राण कर सकें-आधि-व्याधियों से बच सकें।
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