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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 75
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    ता भि॒षजा॑ सु॒कर्म॑णा॒ सा सु॒दुघा॒ सर॑स्वती।स वृ॑त्र॒हा श॒तक्र॑तु॒रिन्द्रा॑य दधुरिन्द्रि॒यम्॥७५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता। भि॒षजा॑। सु॒कर्म॒णेति॑ सु॒ऽकर्म॑णा। सा। सु॒दुघेति॑ सु॒ऽदुघा॑। सर॑स्वती। सः। वृ॒त्र॒हेति॑ वृत्र॒ऽहा। श॒तक्र॑तुः। इन्द्रा॑य। द॒धुः॒। इ॒न्द्रि॒यम् ॥७५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता भिषजा सुकर्मणा सा सुदुघा सरस्वती । स वृत्रहा शतक्रतुरिन्द्राय दधुरिन्द्रियम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ता। भिषजा। सुकर्मणेति सुऽकर्मणा। सा। सुदुघेति सुऽदुघा। सरस्वती। सः। वृत्रहेति वृत्रऽहा। शतक्रतुः। इन्द्राय। दधुः। इन्द्रियम्॥७५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 75
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    पदार्थ -
    १. (सुकर्मणा) = उत्तम कर्मों के द्वारा, अर्थात् जब हम उत्तमता से कर्मों में व्याप्त रहते हैं तब (ता) = वे अश्विनीदेव (भिषजा) = हमारे चिकित्सक बनते हैं। कर्मशीलता से प्राणापान की शक्ति इस प्रकार बढ़ती है कि हमें रोग सताते ही नहीं, कोई रोग आता भी है तो शीघ्र नष्ट हो जाता है। २. इसी प्रकार सुकर्मणा उत्तम कर्मों के होने पर (सा सरस्वती) = वह ज्ञानाधिदेवता सुदुघा हमारा उत्तमता से पूरण करनेवाली बनती है। जब हम ज्ञान के अनुसार कर्म करते हैं तब हमारी सब बुराइयाँ दूर होकर हमारे अन्दर अच्छाइयाँ बढ़ती चलती हैं। ३. (सः) = वह उत्तम कर्मों से प्राणों व ज्ञान की साधना करनेवाला व्यक्ति (वृत्रहा) = ज्ञान पर आवरणभूत सब वासनाओं को नष्ट करनेवाला होता है। (शत-क्रतुः) = यह सौ-के-सौ वर्ष यज्ञमय बिताता है। ४. संक्षेप में, ये अश्विनीदेव तथा सरस्वती (इन्द्राय) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव के लिए (इन्द्रियम्) = सब इन्द्रियों की शक्ति को (दधुः) = धारण करते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- जब हम उत्तमता से कर्मों में लगेंगे तब प्राणापान हमारे वैद्य होंगे। हमें ये नीरोग रखेंगे तथा ज्ञान हममें उत्तमता का पूरण करेगा। हम वासना को नष्ट कर यज्ञशील बनेंगे। हमारी सब इन्द्रियाँ शक्तिसम्पन्न होंगी ।

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