यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 52
ऋषिः - गर्ग ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
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तस्य॑ व॒यꣳ सु॑म॒तौ य॒ज्ञिय॒स्यापि॑ भ॒द्रे सौ॑मन॒से स्या॑म। स सु॒त्रामा॒ स्ववाँ॒२ऽइन्द्रो॑ऽअ॒स्मेऽआ॒राच्चि॒द् द्वेषः॑ सनु॒तर्यु॑योतु॥५२॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑। व॒यम्। सु॒म॒ताविति॑ सुऽम॒तौ। य॒ज्ञिय॑स्य। अपि॑। भ॒द्रे। सौ॒म॒न॒से। स्या॒म॒। सः। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। स्ववा॒निति॒ स्वऽवा॑न्। इन्द्रः॑। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। आ॒रात्। चि॒त्। द्वेषः॑। स॒नु॒तः। यु॒यो॒तु॒ ॥५२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्य वयँ सुमतौ यज्ञियस्यापि भद्रे सौमनसे स्याम । स सुत्रामा स्ववाँऽइन्द्रोऽअस्मेऽआराच्चिद्द्वेषः सनुतर्युयोतु ॥
स्वर रहित पद पाठ
तस्य। वयम्। सुमताविति सुऽमतौ। यज्ञियस्य। अपि। भद्रे। सौमनसे। स्याम। सः। सुत्रामेति सुऽत्रामा। स्ववानिति स्वऽवान्। इन्द्रः। अस्मेऽइत्यस्मे। आरात्। चित्। द्वेषः। सनुतः। युयोतु॥५२॥
विषय - सुमति - सौमनस्
पदार्थ -
१. (वयम्) = हम (तस्य) - ऊपर के मन्त्रों में वर्णित (यज्ञियस्य) = पूजा के योग्य राजा की (सुमतौ) = कल्याणी मति में तथा (भद्रे) = कल्याणकर (सौमनसे) = सौमनस्य में, अर्थात् मन के उत्तम व्यवहार में (स्याम) = हों, अर्थात् हमारे शासन करनेवाले इस राजा की मति सदा उत्तम बनी रहे और इसके मन के भाव सदा उत्तम बने रहें। इसके मस्तिष्क में सदा उत्तम विचार हों, मन में सदा उत्तम भाव हों। इस प्रकार इस राजा का उत्तम मस्तिष्क व उत्तम मन प्रजा के जीवन को उत्तम बनाने के साधनों का सदा विचार करता रहे। २. (सः) = वही राजा (सुत्रामा) = प्रजा का उत्तमता से त्राण करता है। (स्ववान्) = प्रशस्त आत्मावाला होता है । ३. यह (इन्द्रः) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाला राजा (अस्मे) = हमसे (आरात्) = दूर (चित्) = ही (द्वेषः) = द्वेष को (सनुतः) = सदा (युयोतु) = पृथक् करे।
भावार्थ - भावार्थ - राजा सुमति व सौमनसवाला हो। वह हमसे द्वेष को दूर करे।
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