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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 89
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    इन्द्राया॑हि॒ तूतु॑जान॒ऽउप॒ ब्रह्मा॑णि हरिवः। सु॒ते द॑धिष्व न॒श्चनः॑॥८९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑। आ। या॒हि॒। तूतु॑जानः। उप॑। ब्रह्मा॑णि। ह॒रि॒व॒ इति॑ हरिऽवः। सु॒ते। द॒धि॒ष्व॒। नः॒॑। चनः॑ ॥८९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रा याहि तूतुजानऽउप ब्रह्माणि हरिवः । सुते दधिष्व नश्चनः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र। आ। याहि। तूतुजानः। उप। ब्रह्माणि। हरिव इति हरिऽवः। सुते। दधिष्व। नः। चनः॥८९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 89
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के ही विषय को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि इन्द्र हे आलस्यादि शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले जीव ! तू (आयाहि) = हमारे समीप आ । २. क्या करता हुआ ? (तूतुजान:) = [त्वरमाण:] कार्यों को शीघ्रता से करता हुआ। जीव स्वकर्म द्वारा ही प्रभु का अर्चन करता है। ३. (हरिवः) = हे प्रशस्त इन्द्रियरूप अश्वोंवाले जीव ! तू (ब्रह्माणि उप) = सदा स्तोत्रों के समीप रहनेवाला हो, अर्थात् तू सदा प्रभु का स्तवन करनेवाला बन। यह प्रभु-स्तवन ही तेरी इन्द्रियों को विषयासक्त होने से बचाकर पवित्र रक्खेगा। ४. तू सुते शरीर में सोम के उत्पादन के निमित्त (नः) = हमारे (चनः) = अन्न को (दधिष्व) = धारण कर। प्रभु ने जीव के लिए जिन ओषधि वनस्पतियों का निर्माण किया है, उनका बुद्धिपूर्वक प्रयोग करते हुए ही हम उस सोम को शरीर में उत्पन्न करनेवाले बनते हैं जो सोम सुरक्षित होकर हमारी ज्ञानाग्नि को दीप्त करेगा और हमारी बुद्धि को सूक्ष्म बनाकर अन्त में प्रभु का दर्शन कराएगा। इस सोम [वीर्य] की रक्षा से ही हम उस सोम [परमात्मा] को प्राप्त करते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु-प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि १. हम शीघ्रता से कार्यों में व्यापनवाले हों । २. सदा स्तवन करते हुए प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाले बनें। ३. सोम के उत्पादन के लिए सात्त्विक अन्न का सेवन करें।

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