यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 33
ऋषिः - काक्षीवतसुकीर्त्तिर्ऋषिः
देवता - सोमो देवता
छन्दः - विराट् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
51
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोस्य॒श्विभ्यां॑ त्वा॒ सर॑स्वत्यै॒ त्वेन्द्रा॑य त्वा सु॒त्राम्ण॑ऽए॒ष ते॒ योनि॑र॒श्विभ्यां॑ त्वा॒ सर॑स्वत्यै॒ त्वेन्द्रा॑य त्वा सु॒त्राम्णे॑॥३३॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। त्वा॒। सर॑स्वत्यै। त्वा॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णे॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। त्वा॒। सर॑स्वत्यै। त्वा॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णे॑ ॥३३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उपयामगृहीतोस्यश्विभ्यां त्वा सरस्वत्यै त्वेन्द्राय त्वा सुत्राम्णेऽएष ते योनिरश्विभ्यान्त्वा सरस्वत्यै त्वेन्द्राय त्वा सुत्राम्णे ॥
स्वर रहित पद पाठ
उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। त्वा। सरस्वत्यै। त्वा। इन्द्राय। त्वा। सुत्राम्ण इति सुऽत्राम्णे। एषः। ते। योनिः। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। त्वा। सरस्वत्यै। त्वा। इन्द्राय। त्वा। सुत्राम्ण इति सुऽत्राम्णे॥३३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे विद्वन्! यस्त्वमश्वियामुपयामगृहीतोऽसि, यस्य त एषोऽश्विभ्यां सह योनिरस्ति, तं त्वा सरस्वत्यै त्वेन्द्राय त्वा सुत्राम्णे चाहं गृह्णामि, सरस्वत्यै त्वेन्द्राय त्वा सुत्राम्णे त्वा गृह्णामि॥३३॥
पदार्थः
(उपयामगृहीतः) उपयामैरुत्तमनियमैः संगृहीतः (असि) (अश्विभ्याम्) पूर्णविद्याऽध्यापको-पदेशकाभ्याम् (त्वा) त्वाम् (सरस्वत्यै) सुशिक्षितायै वाचे (त्वा) त्वाम् (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (त्वा) (सुत्राम्णे) सुष्ठु रक्षकाय। अत्र कृतो बहुलम् [अष्टा॰भा॰वा॰३.२.११३] इत्यनेन करणे मनिन् (एषः) (ते) तव (योनिः) विद्यासम्बन्धः (अश्विभ्याम्) (त्वा) (सरस्वत्यै) प्रशस्तगुणायै विदुष्यै (त्वा) (इन्द्राय) परमोत्तमव्यवहाराय (त्वा) (सुत्राम्णे) सुष्ठु रक्षकाय॥३३॥
भावार्थः
यो विद्वद्भिः शिक्षितः स्वयं सुप्रज्ञो जितेन्द्रियो विविधविद्यो विद्वत्प्रियः स्यात्, स एव विद्याधर्मप्रवृत्तयेऽधिष्ठाता कर्त्तव्यो भवेत्॥३३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वन्! जो तू (अश्विभ्याम्) पूर्ण विद्या वाले अध्यापक और उपदेशक से (उपयामगृहीतः) उत्तम नियमों के साथ ग्रहण किया हुआ (असि) है, जिस (ते) तेरा (एषः) यह (अश्विभ्याम्) अध्यापक और उपदेशक के साथ (योनिः) विद्यासम्बन्ध है, उस (त्वा) तुझ को (सरस्वत्यै) अच्छी शिक्षायुक्त वाणी के लिये (त्वा) तुझ को (इन्द्राय) उत्कृष्ट ऐश्वर्य्य के लिये और (त्वा) तुझ को (सुत्राम्णे) अच्छे प्रकार रक्षा करनेहारे के लिये मैं ग्रहण करता हूं, (सरस्वत्यै) उत्तम गुण वाली विदुषी स्त्री के लिये (त्वा) तुझ को (इन्द्राय) परमोत्तम व्यवहार के लिये (त्वा) तुझ को और (सुत्राम्णे) उत्तम रक्षा के लिये (त्वा) तुझ को ग्रहण करता हूं॥३३॥
भावार्थ
जो विद्वानों से शिक्षा पाये हुए स्वयं उत्तम बुद्धिमान्, जितेन्द्रिय, अनेक विद्याओं से युक्त विद्वानों में प्रेम करनेहारा होवे, वही विद्या और धर्म की प्रवृत्ति के लिये अधिष्ठाता करने योग्य होवे॥३३॥
विषय
राजा का सरस्वती ( राजसभा ) इन्द्र, और सुत्रामा पद पर स्थापन, भूताधिपति का पद ।
भावार्थ
इसकी व्याख्या देखो अ० १०। २३ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काक्षीवतः सुकीर्तिर्ऋषिः । सोमो देवता । विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
प्रभु का ग्रहण क्यों?
पदार्थ
१. गतमन्त्र में 'प्रभु-ग्रहण' का उल्लेख था। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि वह प्रभुग्रहण कैसे होगा और प्रभु-ग्रहण क्यों आवश्यक है? (उपयामगृहीतः असि) = हे प्रभो! आप (उप) = उपासना द्वारा (याम) = यम-नियमों के धारण करने से गृहीत होते हैं, अर्थात् आपका धारण मैं तभी कर पाऊँगा जब [क] उपासना को अपनाऊँगा और [ख] उपासना के द्वारा मेरा जीवन यम-नियमों के बन्धन में बँधा हुआ होगा । २. (त्वा) = मैं आपको [क] (अश्विभ्याम्) = प्राणपान के लिए ग्रहण करता हूँ। आपकी उपासना से मेरी प्राणापान शक्ति की वृद्धि होगी। [ख] (सरस्वत्यै) = ज्ञान की अधिदेवता के लिए। आपके ग्रहण से मेरा ज्ञान बढ़ेगा तथा [ग] (इन्द्राय) = इन्द्रशक्ति के लिए। आपकी उपासना व ग्रहण से मेरा आत्मिक बल बढ़ता है और अन्त में (घ) (सुत्राम्णे) = उत्तमता से अपने त्राण के लिए। आपके धारण से मैं केवल शारीरिक रोगों से ही नहीं बचता, मानस विकारों से भी मैं अपनी रक्षा कर पाता हूँ। आपका धारण मुझे शरीर की व्याधियों के साथ मन की आधियों से भी बचाता है । ३. इस सारी बात का ध्यान करते हुए (एषः) = यह मैं (ते योनिः) = तेरा गृह बनता हूँ। मैं घर होऊँ और आप उस घर के पति । ऐसा मैं इसीलिए चाहता हूँ कि (अश्विभ्यां त्वा) = प्राणापान के लिए (सरस्वत्यै त्वा) = ज्ञान की अधिदेवता के लिए तथा (इन्द्राय) = प्राणशक्ति के विकास के लिए तथा (सुत्राम्णे) = उत्तमता से अपना धारण करने के लिए समर्थ हो सकूँ ।
भावार्थ
भावार्थ - उपासना व यम-नियमों के पालन से हम परमात्मा का अपने में ग्रहण करें, जिससे हमारी प्राणापानशक्ति की वृद्धि हो, ज्ञान का प्रकाश प्राप्त हो, हमारी आत्मशक्ति का विकास हो तथा हम उत्तमता से अपना त्राण कर सकें-आधि-व्याधियों से बच सकें।
मराठी (2)
भावार्थ
जो विद्वानांकडून शिक्षण घेतलेला, बुद्धिमान, जितेंद्रिय, अनेक विद्यांनीयुक्त असलेल्या विद्वानांना प्रेम करणारा असेल तोच विद्या व धर्माचा अधिष्ठाता बनण्यायोग्य असतो.
विषय
पुन्हा तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे विद्वान (अथवा हे जिज्ञासू शिष्या) (तुझे सद्भाग्य आहे की) (अश्विभ्यम्) पूर्ण विद्यावान अध्यापकाने आणि उपदेशकाने तुला (उपयामगृहीतः) उत्तम नियमांप्रमाणे ग्रहण केलेला (असि) आहेस (विद्वान गुरूने विद्याध्यायनासाठी तुला शिष्य म्हणून स्वीकारले आहे) यामुळे (ते) तुला (एषः) हा जो (अश्विभ्यम्) अद्यापक आणि उपदेशकाशी (योनिः) संबंध आहे, तो (गुरू-शिष्याचा संबंध) (त्वा) तुला (सरस्वत्यै) वाणी शिकण्यासाठी आहे. तो संबंध (त्वा) तुला (इन्द्राय) परमैश्वर्य प्राप्तीसाठी आहे मी तुला अध्यापक (त्वा) तुला (सुत्राम्णे) तुझे रक्षण करण्यासाठी ग्रहण करीत आहे. (सरस्वत्यै) उत्तम गुणवती विदुषीसाठी (ग्रहण करीत आहे) (तुला सुंदर प्रिय भाषण शिकविण्यासाठी योग्य शिक्षिका मिळवून देईल) (त्या) तुला (इन्द्राय) उत्तम आचरण करण्यासाठी आणि (त्वा) तुला (सुत्राम्णे) उत्तमप्रकारे रक्षण (वा पालनाकरिता) मी (त्वा) तुला ग्रहण करीत आहे. ॥33॥
भावार्थ
भावार्थ - जो (शिष्य) विद्वान शिक्षकांकडून शिक्षण घेतो, तसेच जो स्वतः देखील बुद्धिमान, जितेंद्रिय, विविध विद्यावान, विद्वानांना प्रिय आहे, अशा शिष्याचीच विद्या आणि धर्म शिकण्याकडे प्रवृत्ती असते. तोच विद्याप्राप्तीचा अधिकारी असतो. ॥33॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person, thou art trained in nice rules of conduct, by the teacher and the preacher. Thou art educationally connected with them. I accept thee for didactic speech, for lofty supremacy, for effective guardianship, for thy possessing a noble, learned wife, for noble behaviour, and for full protection.
Meaning
Teacher/scholar, approved and authorized you are by the Ashvinis, teachers and scholars of eminence, for the service of Sarasvati, language and learning, Indra, administration, and Sutraman, security and discipline. Now here is your new office with the Ashvinis, teachers and scholars, with adequate powers in the service of Sarasvati, teaching and research, Indra, administration, planning and development, and Sutraman, discipline and security of the organisation.
Translation
О devotional bliss, you have been duly accepted. I offer you to the healers, to the learning divine, and to the resplendent Lord, the good protector. This is your abode. I dedicate you to the healers, to the speech, and to the resplendent Lord, the good protector. (1)
Notes
Repeated from X. 23.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বান্ ! তুমি (অশ্বিভ্যাম্) পূর্ণ বিদ্যাযুক্ত অধ্যাপক ও উপদেশকের সহিত (উপয়ামগৃহীতঃ) উত্তম নিয়ম সহ গ্রহণ করা (অসি) হইয়াছ, (তে) তোমার (এষঃ) এই (অশ্বিভ্যাম্) অধ্যাপক ও উপদেশক সহ (য়োনিঃ) বিদ্যাসম্বন্ধ, সেই (ত্বা) তোমাকে (সরস্বত্যৈ) উত্তম শিক্ষাযুক্ত বাণীর জন্য (ত্বা) তোমাকে (ইন্দ্রায়) উৎকৃষ্ট ঐশ্বর্য্য হেতু এবং (ত্বা) তোমাকে (সুত্রাম্ণে) উত্তম প্রকার রক্ষাকারীর জন্য আমি গ্রহণ করিতেছি (সরস্বত্যৈ) উত্তম গুণ যুক্ত বিদুষী স্ত্রীর জন্য (ত্বা) তোমাকে (ইন্দ্রায়) পরমোত্তম ব্যবহার হেতু (ত্বা) তোমাকে এবং (সুত্রাম্ণে) উত্তম রক্ষা হেতু (ত্বা) তোমাকে গ্রহণ করিতেছি ॥ ৩৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যে বিদ্বান্দিগের হইতে শিক্ষা প্রাপ্ত স্বয়ং উত্তম বুদ্ধিমান জিতেন্দ্রিয় অনেক বিদ্যার্থী যুক্ত বিদ্বান্দিগের প্রিয় হইবে, সেই বিদ্যা ও ধর্মের প্রবৃত্তির জন্য অধিষ্ঠাতা করিবার যোগ্য হইবে ॥ ৩৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতোস্য॒শ্বিভ্যাং॑ ত্বা॒ সর॑স্বত্যৈ॒ ত্বেন্দ্রা॑য় ত্বা সু॒ত্রাম্ণ॑ऽএ॒ষ তে॒ য়োনি॑র॒শ্বিভ্যাং॑ ত্বা॒ সর॑স্বত্যৈ॒ ত্বেন্দ্রা॑য় ত্বা সু॒ত্রাম্ণে॑ ॥ ৩৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
উপয়ামগৃহীতোऽসীত্যস্য কাক্ষীবতসুকীর্ত্তির্ঋষিঃ । সোমো দেবতা ।
বিরাট্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ।
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