यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 26
ऋषिः - अश्वतराश्विर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
72
यत्रेन्द्र॑श्च वा॒युश्च॑ स॒म्यञ्चौ॒ चरतः स॒ह।तं लो॒कं पुण्यं॒ प्रज्ञे॑षं॒ यत्र॑ से॒दिर्न वि॒द्यते॑॥२६॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑। इन्द्रः॑। च॒। वा॒युः। च॒। स॒म्यञ्चौ॑। चर॑तः। स॒ह। तम्। लो॒कम्। पुण्य॑म्। प्र। ज्ञे॒षम्। यत्र॑। से॒दिः। न। वि॒द्यते॑ ॥२६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्रेन्द्रश्च वायुश्च सम्यञ्चो चरतः सह । तँलोकम्पुण्यम्प्र ज्ञेषँयत्र सेदिर्न विद्यते ॥
स्वर रहित पद पाठ
यत्र। इन्द्रः। च। वायुः। च। सम्यञ्चौ। चरतः। सह। तम्। लोकम्। पुण्यम्। प्र। ज्ञेषम्। यत्र। सेदिः। न। विद्यते॥२६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्या! यथाऽहं यत्रेन्द्रश्च वायुः सह सम्यञ्चौ चरतश्च, यत्र सेदिर्न विद्यते, तं पुण्यं लोकं प्रज्ञेषम्, तथैतं यूयं विजानीत॥२६॥
पदार्थः
(यत्र) यस्मिन्नीश्वरे (इन्द्रः) सर्वत्राऽभिव्याप्ता विद्युत् (च) (वायुः) धनञ्जयादिस्वरूपः पवनः (च) (सम्यञ्चौ) (चरतः) (सह) (तम्) (लोकम्) सर्वस्य द्रष्टारम् (पुण्यम्) पुण्यजन्यज्ञानेन ज्ञातुमर्हम् (प्र) (ज्ञेषम्) जानीयाम् (यत्र) यस्मिन् (सेदिः) नाश उत्पत्तिर्वा (न) निषेधे (विद्यते) ॥२६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि कश्चिद् विद्वान् वायुविद्युदाकाशादीनामियत्तां जिज्ञासेत, तर्ह्यन्तं न प्राप्नोति, यत्र चैते व्याप्याः सन्ति, तस्य ब्रह्मणोऽन्तं ज्ञातुं कः शक्नुयात्॥२६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जैसे मैं (यत्र) जिस ईश्वर में (इन्द्रः) सर्वव्याप्त बिजुली (च) और (वायुः) धनञ्जय आदि वायु (सह) साथ (सम्यञ्चौ) अच्छे प्रकार मिले हुए (चरतः) विचरते हैं (च) और (यत्र) जिस ब्रह्म में (सेदिः) नाश वा उत्पत्ति (न, विद्यते) नहीं विद्यमान है, (तम्) उस (पुण्यम्) पुण्य से उत्पन्न हुए ज्ञान से जानने योग्य (लोकम्) सबको देखनेहारे परमात्मा को (प्र, ज्ञेषम्) जानूं, वैसे इसको तुम लोग भी जानो॥२६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो कोई विद्वान् वायु बिजुली और आकाशादि की सीमा को जानना चाहे तो अन्त को प्राप्त नहीं होता। जिस ब्रह्म में ये सब आकाशादि विभु पदार्थ भी व्याप्य हैं, उस ब्रह्म के अन्त के जानने को कौन समर्थ हो सकता है॥२६॥
विषय
ब्रह्मक्षत्रयुक्त पुण्य लोक का वर्णन।
भावार्थ
(यत्र) जहां, जिस लोक में (इन्द्रः च वायुः च) इन्द्र और -वायु ( सम्यञ्चौ ) पूर्ण बलवान् होकर ( सह चरतः ) एक साथ विचरण 'करते हैं मैं ( तं लोकम् ) उस लोक, स्थान, प्रदेश, आत्मा और समाज को (पुण्यम् ) प्रवित्र (प्रज्ञेषम् ) जानता हूँ । (यन्त्र) जहां (सेदिः) अन्नादि के न मिलने के कारण उत्पन्न विपत्ति, दुर्भिक्ष आदि क्लेश ( न विद्यते ) नहीं होता । ( १ ) मोक्ष में इन्द्र अर्थात् जीव और वायु अर्थात् व्यापक परमेश्वर दोनों साथ विचरते हैं, वह पुण्य लोक है । वहां भूख प्यास, जन्म मरण कष्ट नहीं । ( २ ) जिसमें इन्द्र, राजा, वायु सेनापति दोनों सुसंगत रहते हैं वह देश पुण्य है जहां अन्नादि का अभाव और प्रजाजन का नाश नहीं होता । (३) वह शरीर पवित्र है जिसमें आत्मा और प्राण सुसंगत रहें, जहां रोगादि क्लेश नहीं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋष्यादि पूर्ववत् ॥
विषय
इन्द्र+वायु
पदार्थ
१. गतमन्त्र के पुण्यलोक का ही वर्णन करते हुए कहते हैं कि (यत्र) = जहाँ (इन्द्रः च वायुः च) = इन्द्र और वायु, अर्थात् बल की देवता तथा गति [ज्ञान] की देवता [गतेस्त्रयोऽर्थाःज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च] (सम्यञ्चौ) = सम्यक् विकासवाले होते हुए सह (चरतः) = साथ-साथ विचरते हैं, अर्थात् जहाँ सब लोग सबल तथा ज्ञानसम्पन्न हैं २. (तम्) = उस (पुण्यं लोकम्) = शुभ लोक को (प्रज्ञेषम्) = [प्रजानीयाम्] मैं जान पाऊँ, यत्र जिस लोक में (सेदि:) = अन्न के न प्राप्त होने से होनेवाला विनाश न विद्यते नहीं है। ३. राष्ट्र में सब मन्त्री राजा के साथ मिलकर इस प्रकार व्यवस्था करते हैं कि राष्ट्र में अन्न की कमी नहीं होती। राष्ट्र में कोई भी व्यक्ति सभी भूखा नहीं मरता । राजा ने जहाँ यह व्यवस्था करनी है कि सभी सबल हों [इन्द्र], ज्ञानसम्पन्न हों [वायु], वहाँ उसे सभी के लिए अन्न भी प्राप्त कराना चाहिए, आपस्तम्ब के शब्दों में 'नास्य विषये कश्चित् क्षुधयावसीदेत्' इसके राष्ट्र में कोई भी भूख से अवसन्न [मृत] न हो।
भावार्थ
भावार्थ- पुण्यलोक में 'इन्द्र और वायु' का स्थापन होता है, अर्थात् वहाँ के निवासी सबल व सज्ञान होते हैं। इनमें कोई निर्बल व मूर्ख नहीं होता। अन्नाभाव से कोई मरता नहीं ।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्वान वायू, विद्युत व आकाशाची सीमा जाणून घेऊ इच्छितात त्याचा अंत कुणालाही लागू शकत नाही. ज्या ब्रह्मात हे आकाश इत्यादी पदार्थही व्याप्त आहेत. त्या ब्रह्माचा अंत जाणण्यास कोण समर्थ असणार बरे !
विषय
पुनश्च, तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (लोकहो) ज्याप्रमाणे मी (एक उपासक) (यत्र) ज्या परमेश्वरात (इन्द्रः) सर्वत्र व्याप्त विद्युत (च) आणि (वायुः) धनंजय आदी वायू (सह) सोबत वा एकत्र राहून (सम्यञ्चौ) चांगल्याप्रकारे एकमेकात मिसळून (चरतः) असतात वा राहतात, (तद्वत हे मनुष्यानो, तुम्हीही मिळून राहा) (च) तसेच (यत्र) ज्या ईश्वराचा (भेदिः) नाश अथवा उत्पत्ती (न, विद्यते) होत नाही, (तत्) त्या (पुण्यम्) पुण्यापासून उत्पन्न ज्ञानाद्वारे जो जाणता येतो, त्या (लोकम्) सर्वांना पाहणाऱ्या परमेश्वराला जसे मी (प्र, ज्ञेषम्) जाणतो (वा जाणण्याचा यत्न करतो,) त्याप्रमाणे तुम्ही पण जाणून घ्या ॥26॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोमा अलंकार आहे. कोणाही विद्वानानें वायु, विद्युत आणि आकाश आदी पदार्थांची सीमा जाणण्याचा (त्यांचे संपूर्ण गुण वा लाभ प्राप्त करण्याचा) यत्न केला, तर तो त्यांचे अंत (वा पूर्ण गुण) जाणू शकत नाही, मग ज्या ब्रह्मामधे हे सर्व आकाशादी विभु पदार्थ व्याप्त आहेत, त्या परमेश्वराचा अंत (वा पूर्ण स्वरूपाला) कोण जाणू शकेल बरें? (कोणीही नाही.) ॥26॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Fain would I know that holy God, where birth and death unknown, where in complete accordance reside soul and God side by side.
Meaning
Where Indra is light and power, and Vayu breath of life, and both in unison work for all, where want is non-existent and weariness no more, that holy land of plenty and sacred joy, O Lord of Light, reveal to me.
Translation
May I realize that virtuous world, where the rain and the wind work in complete harmony with each other and where there is no langour or idleness. (1)
Notes
Sedih, langour; idleness. Also, दु:खं, distress due to want of food.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যেমন আমি (য়ত্র) যে ঈশ্বরে (ইন্দ্রঃ) সর্বত্রব্যাপ্ত বিদ্যুৎ (চ) এবং (বায়ুঃ) ধনঞ্জয়াদি বায়ু (সহ) সহ (সম্যঞ্চৌ) ভালো প্রকার মিলিত হইয়া (চরতঃ) বিচরণ করে (চ) এবং (য়ত্র) যে ব্রহ্মে (সেদিঃ) নাশ বা উৎপত্তি (ন, বিদ্যতে) বিদ্যমান নয়, (তম্) সেই (পুণ্যম্) পুণ্য দ্বারা উৎপন্ন জ্ঞান দ্বারা জানিবার যোগ্য (লোকম্) সকলের দ্রষ্টা পরমাত্মাকে (প্র, জ্ঞেষম্) বিদিত হই সেইরূপ তোমরাও বিদিত হও ॥ ২৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে কোন বিদ্বান্ বায়ু, বিদ্যুৎ ও আকাশাদি সীমা জানিতে চাহে কিন্তু অন্তকে প্রাপ্ত হয় না । যে ব্রহ্মে এই সব আকাশাদি বিভু পদার্থও ব্যাপ্য সেই ব্রহ্মের অন্ত জানিতে কে সক্ষম হইতে পারে? ॥ ২৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়ত্রেন্দ্র॑শ্চ বা॒য়ুশ্চ॑ স॒ম্যঞ্চৌ॒ চর॑তঃ স॒হ ।
তং লো॒কং পুণ্যং॒ প্র জ্ঞে॑ষং॒ য়ত্র॑ সে॒দির্ন বি॒দ্যতে॑ ॥ ২৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়ত্রেত্যস্যাশ্বতরাশ্বির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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