यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 72
ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः
देवता - इन्द्रसवितृवरुणा देवताः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
51
व॑रुणः क्ष॒त्रमि॑न्द्रि॒यं भगे॑न सवि॒ता श्रिय॑म्।सु॒त्रामा॒ यश॑सा॒ बलं॒ दधा॑ना य॒ज्ञमा॑शत॥७२॥
स्वर सहित पद पाठवरु॑णः। क्ष॒त्रम्। इ॒न्द्रि॒यम्। भगे॑न। स॒वि॒ता। श्रिय॑म्। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। यश॑सा। बल॑म्। दधा॑नाः। य॒ज्ञम्। आ॒श॒त॒ ॥७२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वरुणः क्षत्रमिन्द्रियम्भगेन सविता श्रियम् । सुत्रामा यशसा बलन्दधाना यज्ञमाशत ॥
स्वर रहित पद पाठ
वरुणः। क्षत्रम्। इन्द्रियम्। भगेन। सविता। श्रियम्। सुत्रामेति सुऽत्रामा। यशसा। बलम्। दधानाः। यज्ञम्। आशत॥७२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यथा वरुणः सविता सुत्रामा सूद्योगी सभेशो भगेन सह वर्त्तमानं क्षत्रमिन्द्रियं श्रियं यज्ञं च प्राप्नोति, तथा यशसा बलं दधानाः सन्तो यूयमाशत॥७२॥
पदार्थः
(वरुणः) उत्तमपुरुषः (क्षत्रम्) राज्यम् (इन्द्रियम्) मनआदिकम् (भगेन) ऐश्वर्येण (सविता) ऐश्वर्योत्पादकः (श्रियम्) राज्यलक्ष्मीम् (सुत्रामा) सुष्ठु त्राता (यशसा) कीर्त्या (बलम्) (दधानाः) (यज्ञम्) (आशत) व्याप्नुत॥७२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ऐश्वर्येण विना राज्यं राज्येन विना श्रीः श्रिया विनोपभोगाश्च न प्राप्यन्ते, तस्मान्नित्यं पुरुषार्थेन वर्त्तितव्यम्॥७२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जैसे (वरुणः) उत्तम पुरुष (सविता) ऐश्वर्योत्पादक (सुत्रामा) अच्छे प्रकार रक्षा करनेहारा सभा का अध्यक्ष (भगेन) ऐश्वर्य्य के साथ वर्त्तमान (क्षत्रम्) राज्य और (इन्द्रियम्) मन आदि (श्रियम्) राज्यलक्ष्मी और (यज्ञम्) यज्ञ को प्राप्त होता है, वैसे (यशसा) कीर्ति के साथ (बलम्) बल को (दधानाः) धारण करते हुए तुम (आशत) प्राप्त होओ॥७२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। ऐश्वर्य्य के विना राज्य, राज्य के विना राज्यलक्ष्मी और राज्यलक्ष्मी के विना भोग प्राप्त नहीं होते, इसलिये नित्य पुरुषार्थ करना चाहिये॥७२॥
विषय
उषा, नक्त, अश्वि, तीन देवियां, सविता, वरुण का इन्द्र पद को पुष्ट करना ।
भावार्थ
( वरुणः) शत्रुओं का निवारक, ( इन्द्रियम् ) इन्द्र राजा के योग्य (क्षत्रम् ) क्षात्रबल को (सविता) सर्वाज्ञापक, ऐश्वर्य का उत्पन्न करनेवाला स्वयं (भगेन) कोष के अध्यक्ष के साथ मिलकर ( श्रियम् ) राज्यलक्ष्मी को और (सुत्रामा) उक्त रीति से राष्ट्र की रक्षा करनेहारा राजा स्वयं (यशसा ) अपने अंश से, वीर्य से ( बलम् ) सेनाबल को (दधानाः) धारण करते हुए ( यज्ञम् ) यज्ञ, सुव्यवस्थित राष्ट्र को (आशत) वश किये रहें, या भोग करें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
यशसा - बलम्
पदार्थ
१. (वरुणः) = द्वेष के निवारण की देवता (क्षत्रं इन्द्रियम्) = रोगरूप क्षतों [प्रहारों ] से त्राण करनेवाले बल तथा इन्द्रियशक्तियों को धारण करती है। हम द्वेष से ऊपर उठते हैं तो तेजस्वी व इन्द्रियशक्तिसम्पन्न बनते हैं । २. (सविता) = निर्माण की देवता (भगेन) = उपासना के साथ (श्रियम्) = श्री को धारण करती है, अर्थात् हम निर्माण के कार्यों में लगे रहते हैं और प्रभु का स्मरण नहीं छोड़ते तो हमारे सब कार्य श्रीसम्पन्न होते हैं । ३. (सुत्रामा) = अपना उत्तम त्राण करनेवाले व्यक्ति (यशसा बलम्) = सदा यश के साथ बल को (दधाना) = धारण करने के हेतु से (यज्ञम् आशत) = यज्ञ को व्याप्त करते हैं, अर्थात् सदा यज्ञों में लगे रहते हैं। यह यज्ञों में लगे रहना ही उनके यश व बल का कारण बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम द्वेष से ऊपर उठें और बल व इन्द्रियशक्तिसम्पन्न हों। प्रभु स्मरणपूर्वक निर्माण के कार्यों में लगे रहें और श्रीसम्पन्न बनें। सुत्रामा - अपने को रोगादि से बचानेवाला पुरुष यशस्वी बल के लाभ के लिए जीवन को सदा कर्मों में व्याप्त रखता है।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ऐश्वर्य मिळविल्याशिवाय राज्य मिळू शकत नाही. राज्याशिवाय लक्ष्मी मिळू शकत नाही. लक्ष्मीशिवाय भोग प्राप्त होऊ शकत नाहीत त्यासाठी नेहमी पुरुषार्थ करावा.
विषय
पुढील मंत्रात तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, ज्याप्रकारे (समाजातील) उत्तम मनुष्य (सविता) ऐश्वर्य वाढविणारा आणि (सुत्रामा) सर्वांचे रक्षण करणारा सभाध्यक्ष (राजा) (भगेन) (राष्ट्राच्या) संपत्तीद्वारे (क्षत्रम्) राज्य-शक्ती, (इन्द्रियम्) मन (मानसिक बळ) आणि (श्रियम्) राज्यलक्ष्मी (वाढविण्यासाठी) (यज्ञम्) यज्ञ करतो आणि त्याद्वारे (यशसा) (आपली व राज्याची) कीर्ती (बलम्) आणि शक्ती वाढवितो (दधानाः) हे मनुष्यानो (प्रजाजनहो) तुम्हीही त्याप्रमाणे शक्ती धारण करीत (आशत) यशाची प्राप्ती करा ॥722॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तापेमा अलंकार आहे. ऐश्वर्या शिवाय राज्य (राज्याचे शासन, नियंत्रण, पालन, विस्तार आदी कार्ये) होत नाहीत आणि राज्याशिवाय राज्यलक्ष्मी (वैभव व आर्थिक स्थिरता) येत नाही आणि राज्यलक्ष्मी शिवाय सुखाचा उपभोग करता येत नाही, यामुळे (राजा आणि प्रजेने) सदा पुरूषार्थ केला पाहिजे)
इंग्लिश (3)
Meaning
O men, just as a noble soul, striving for affluence, speaker of the Assembly, a good guardian, full of prosperity, acquires sovereignty, a just mind, worldly wealth and philanthropic deeds, so should ye acquire them, possessing renown and strength.
Meaning
Just as Varuna, man of excellence, Savita, creative man of inspiration, and Sutrama, protective man of industry, create the social order, power, strength and beauty, and hold and sustain it with honour and grace and thereby attain the fruits of yajna. So should all men and women try to achieve the earthly goal of their life with yajna.
Translation
May the venerable Lord, bestowing strength for defending the weak, the inspirer Lord, bestowing wealth with grace, and the good protector, bestowing power with fame, attend this sacrifice. (1)
Notes
Āśata,व्याप्नुत, may attend. From√अशूङ् व्याप्तौ,topervade
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যেমন (বরুণঃ) উত্তম পুরুষ (সবিতা) ঐশ্বর্য্যোৎপাদক (সুত্রামা) সুষ্ঠুত্রাতা সভার অধ্যক্ষ (ভগেন) ঐশ্বর্য্য সহ বর্ত্তমান (ক্ষত্রম্) রাজ্য এবং (ইন্দ্রিয়ম্) মন আদি (শ্রিয়ম্) রাজ্যলক্ষ্মী এবং (য়জ্ঞম্) যজ্ঞকে প্রাপ্ত হয় সেইৱূপ (য়শসা) কীর্ত্তি সহ (বলম্) বলকে (দধানাঃ) ধারণ করিয়া তোমরা (আশত) প্রাপ্ত হও ॥ ৭২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । ঐশ্বর্য্য বিনা রাজ্য, রাজ্য বিনা রাজ্যলক্ষ্মী এবং রাজ্যলক্ষ্মী বিনা ভোগ প্রাপ্ত হয় না, অতএব নিত্য পুরুষার্থ করা উচিত ॥ ৭২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
বর॑ুণঃ ক্ষ॒ত্রমি॑ন্দ্রি॒য়ং ভগে॑ন সবি॒তা শ্রিয়॑ম্ ।
সু॒ত্রামা॒ য়শ॑সা॒ বলং॒ দধা॑না য়॒জ্ঞমা॑শত ॥ ৭২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
বরুণ ইত্যস্য বিদর্ভির্ঋষিঃ । ইন্দ্রসবিতৃবরুণা দেবতাঃ । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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