यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 2
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - सभोशो देवता
छन्दः - भुरिगुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
170
निष॑साद धृ॒तव्र॑तो॒ वरु॑णः प॒स्त्यास्वा। साम्रा॑ज्याय सु॒क्रतुः॑। मृ॒त्योः पा॑हि वि॒द्योत् पा॑हि॥२॥
स्वर सहित पद पाठनि। स॒सा॒द॒। धृ॒तव्र॑त॒ इति॑ धृ॒तऽव्र॑तः। वरु॑णः। प॒स्त्या᳕सु। आ। साम्रा॑ज्या॒येति॒ साम्ऽरा॑ज्याय। सु॒क्रतु॒रिति॑ सु॒ऽक्रतुः॑। मृ॒त्योः। पा॒हि॒। वि॒द्योत्। पा॒हि॒ ॥२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
निषसाद घृतव्रतो वरुणः पस्त्यास्वा । साम्राज्याय सुक्रतुः । मृत्योः पाहि विद्योत्पाहि॥
स्वर रहित पद पाठ
नि। ससाद। धृतव्रत इति धृतऽव्रतः। वरुणः। पस्त्यासु। आ। साम्राज्यायेति साम्ऽराज्याय। सुक्रतुरिति सुऽक्रतुः। मृत्योः। पाहि। विद्योत्। पाहि॥२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे सभेश! भवान् सुक्रतुर्धृतव्रतो वरुणः सन् साम्राज्याय पस्त्यास्वा निषसाद। अस्मान् वीरान् मृत्योः पाहि विद्योत् पाहि॥२॥
पदार्थः
(नि) नित्यम् (ससाद) सीद (धृतव्रतः) धृतं व्रतं सत्यं येन (वरुणः) उत्तमस्वभावः (पस्त्यासु) न्यायगृहेषु (आ) समन्तात् (साम्राज्याय) भूगोले चक्रवर्त्तिराज्यकरणाय (सुक्रतुः) शोभनकर्मप्रज्ञः (मृत्योः) अल्पमृत्युना प्राणत्यागात् (पाहि) रक्ष (विद्योत्) दीप्यमानाग्न्यास्त्रादेः। अत्र द्युतधातोर्विच् (पाहि) रक्ष॥२॥
भावार्थः
यो धर्म्यगुणकर्मस्वभावो न्यायाधीशः सभेशो भवेत्, स चक्रवर्त्तिराज्यं कर्त्तुं प्रजाश्च रक्षितुं शक्नोति, नेतरः॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे सभापति! आप (सुक्रतुः) उत्तम बुद्धि और कर्मयुक्त (धृतव्रतः) सत्य का धारण करनेहारे (वरुणः) उत्तम स्वभावयुक्त होते हुए (साम्राज्याय) भूगोल मे चक्रवर्त्ती राज्य करने के लिये (पस्त्यासु) न्यायघरों में (आ, नि, षसाद) निरन्तर स्थित हूजिये तथा हम वीरों की (मृत्योः) मृत्यु से (पाहि) रक्षा कीजिये और (विद्योत्) प्रकाशमान अग्नि अस्त्रादि से (पाहि) रक्षा कीजिये॥२॥
भावार्थ
जो धर्मयुक्त गुण-कर्म-स्वभाव वाला न्यायाधीश सभापति होवे, सो चक्रवर्त्ती राज्य और प्रजा की रक्षा करने को समर्थ होता है, अन्य नहीं॥२॥
विषय
सर्वश्रेष्ठ पुरुष का सिंहासन पर विराजना और उसको प्रजापालन के कर्त्तव्योपदेश ।
भावार्थ
( धृतव्रतः) व्रतों, नियमों को धारण करने वाला, (सु-क्रतुः ) उत्तम प्रज्ञावान्, कर्म कुशल पुरुष (वरुणः) सर्वश्रेष्ठ, प्रजा के कष्टों को वारण करनेहारा (पस्त्यासु ) न्यायगृहों, या प्रजाओं के बीच, (आ निससाद) साक्षात् विराजे । हे राजन् ! तू ( मृत्योः ) प्रजा को मृत्यु कारणों से (पाहि) बचा । (विद्योत् ) विद्युत् के समान अग्नि आदि के बने अस्त्रों से ( पाहि ) बचा । अर्थात् राजा प्रजा की अकारण, एवं अकाल मृत्यु और शत्रु के आक्रमणों से रक्षा करे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिः । सभेशः । भुरिग् उष्णिक । ऋषभः ॥
विषय
धृत - व्रत
पदार्थ
१. गतमन्त्र का 'क्षत्र का केन्द्र' बननेवाला व्यक्ति निषसाद निश्चय से व नम्रता के साथ सिंहासन पर बैठता है । २. धृतव्रतः यह व्रत का धारण करता है। 'प्रजारक्षण' ही इसका मुख्य व्रत होता है। प्रजारक्षण के लिए यह बाह्य शत्रुओं से बदला लेता है और अन्तःशत्रुओं को उचित दण्ड द्वारा सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करता है। ३. (वरुणः) = [क] यह प्रजाओं के द्वारा चुना जाता है। प्रजा ने रक्षण के लिए ही इसे चुना है, [ख] यह अपने को अपने कार्य में समर्थ होने के लिए श्रेष्ठ बनने का प्रयत्न करता है। ('वरुणो नाम वर: श्रेष्ठः'), [ग] यह प्रजाओं में द्वेषादि की वृत्तियों के निवारण का प्रयत्न करता है। ('वारयति इति वरुणः') । ४. इसी उद्देश्य से यह (आ) = समन्तात् चारों ओर (पस्त्यासु) = प्रजाओं में विचरण करता है। प्रजाओं में सदा भ्रमण करनेवाला राजा ही प्रजा का ठीक से रक्षण कर पाता है । ५. यह प्रजाओं में भ्रमण करनेवाला राजा ही (साम्राज्याय) = सम्यक् शासन के लिए होता है । उत्तमता से शासन के लिए राज्य में सर्वत्र भ्रमण करके स्वयं सब कुछ देखना आवश्यक है । ६. यह राजा (सुक्रतुः) = उत्तम कर्म व प्रज्ञावाला होता है। ७. इस राजा को आदेश देते हैं कि (मृत्योः पाहि) = तू प्रजाओं को मृत्यु से बचा । सफाई के उत्तम प्रबन्ध से तथा खान-पान की वस्तुओं की ठीक व्यवस्था से तू रोगों को न फैलने दे। ८. केवल रोगों से ही नहीं (विद्योत् पाहि) = [विद्युत्पाताद्रक्ष] विद्युत्पात आदि आधिदैविक आपत्तियों से भी तू राष्ट्र की रक्षा करनेवाला हो। वस्तुतः यदि वैयक्तिक पापों से आध्यात्मिक कष्ट होते हैं तो सामाजिक पापों से आधिभौतिक कष्ट आया करते हैं और राजा के अपराध अथवा राष्ट्रीय अपराध आधिदैविक आपत्तियों के कारण बनते हैं, अतः राजा ने राष्ट्र में उत्तम व्यवस्था के द्वारा राष्ट्र की आधिदैविक आपत्तियों से रक्षा करनी है।
भावार्थ
भावार्थ-प्रजारक्षण के व्रत को लेकर राजा गद्दी पर बैठे। वह प्रज्ञापूर्वक कर्म करनेवाला हो। राष्ट्र को रोगों से होनेवाली मृत्यु से बचाए तथा विद्युत्पतन आदि आधिदैविक आपत्तियों से भी बचाए ।
मराठी (2)
भावार्थ
धार्मिक गुण, कर्म, स्वभावाचा असा जो न्यायी राजा असतो तो प्रजेचे रक्षण करण्यास समर्थ असतो, अन्य नव्हे.
विषय
पुन्हा तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (प्रजाजनांचे वा सैनिकांचे वचन) हे सभापती, आपण (सुक्रतुः) श्रेष्ठ विचार आणि उत्तम कर्म करणारे आहात. (धृतव्रतः) सत्याने वागणारे असून आपण (वरूणः) उत्तम स्वभावाचे आहात. (आपणास विनंती की आपण) (साम्राज्याय) समस्त भूमंडळावर चक्रवर्ती राज्याची स्थापना करण्यासाठी (पस्त्यासु) न्यायमंदिरात (आ, नि, षसाद) सदा उपस्थित रहा. तसेच आपण आम्हा वीर सैनिकांची व प्रजाजनांची (मृत्योः) मृत्यूपासून (पाहि) रक्षा करा. (विद्योत्) प्रकाशमान आग्नेयादी अस्त्राद्वारे (पाहि) आमचे रक्षण करा. ॥2॥
भावार्थ
भावार्थ - जो न्यायाधीश वा सभापती धर्माप्रमाणे वागणारा आणि धार्मिक गुण, कर्म, स्वभाव असणारा असतो, तो जगात चक्रवर्ती साम्राज्याची स्थापना करण्यात आणि आपल्या प्रजेचे रक्षण करण्यात समर्थ होतो, इतर कोणीही असा होऊ शकत नाही. ॥2॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O King, endowed with wisdom and enterprise, imbiber of truth, good natured, sit thou in the midst of thy subjects in Legislatures for universal rule. Save us from death. Save us from fiery weapons.
Meaning
President of the Supreme Council, committed to noble resolutions of conscious choice, master of noble thoughts and good actions, best and first choice of humanity, be seated on the seat of governance among the peoples of the world for a sovereign world order. Save us from death and destruction. Save us from lightning and the thunderbolt.
Translation
This venerable king, who is observing a vow, and who is good in deed, has ascended you for acquisition of an empire. (1) Protect him from death. (2) Protect him from the lightning. (3)
Notes
Varuṇaḥ, वरणीय: उत्तमगुणस्वभाव:, venerable. Dhṛtavratah, who has taken an oath, or a vow. Pastyāsu, विशो वै पस्त्या:, प्रजासु upon the subjects, i. e. the people. 1087 Nişasāda, has sat upon; ascended to the royal throne.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে সভাপতি ! আপনি (সুক্রতুঃ) উত্তম বু্দ্ধি ও কর্মযুক্ত (ধৃতব্রতঃ) সত্যের ধারণকারী (বরুণঃ) উত্তম স্বভাবযুক্ত হইয়া (সাম্রাজ্যায়) ভূগোলে চক্রবর্ত্তী রাজ্য করিবার জন্য (পস্তাসু) ন্যায়গৃহে (আ, নি, ষসাদ) সর্বদা স্থিত হউন তথা আমা বীরদের (মৃত্যোঃ) মৃত্যু হইতে (পাহি) রক্ষা করুন এবং (বিদ্যোৎ) প্রকাশমান অগ্নি অস্ত্রাদি হইতে (পাহি) রক্ষা করুন ॥ ২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যিনি ধর্মযুক্ত গুণ-কর্ম-স্বভাবসম্পন্ন ন্যায়াধীশ সভাপতি হইবেন তিনি চক্রবর্তী রাজ্য এবং প্রজার রক্ষা করিতে সক্ষম হয়েন, অন্যে নহে ॥ ২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
নিষ॑সাদ ধৃ॒তব্র॑তো॒ বর॑ুণঃ প॒স্ত্যা᳕স্বা ।
সাম্রা॑জ্যায় সু॒ক্রতুঃ॑ । মৃ॒ত্যোঃ পা॑হি বি॒দ্যোৎ পা॑হি ॥ ২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
নিষসাদেত্যস্য প্রজাপতিরৃষিঃ । সভেশো দেবতা । ভুরিগুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
ঋষভঃ স্বরঃ ॥
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