यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 5
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - सभापतिर्देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
182
शिरो॑ मे॒ श्रीर्यशो॒ मुखं॒ त्विषिः॒ केशा॑श्च॒ श्मश्रू॑णि। राजा॑ मे प्रा॒णोऽअ॒मृत॑ꣳ स॒म्राट् चक्षु॑र्वि॒राट् श्रोत्र॑म्॥५॥
स्वर सहित पद पाठशिरः॑। मे॒। श्रीः। यशः॑। मुख॑म्। त्विषिः॑। केशाः॑। च॒। श्मश्रू॑णि। राजा॑। मे॒। प्रा॒णः। अ॒मृत॑म्। स॒म्राडिति॑ स॒म्ऽराट्। चक्षुः॑। वि॒राडिति॑ वि॒ऽराट्। श्रोत्र॑म् ॥५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शिरो मे श्रीर्यशो मुखन्त्विषिः केशाश्च श्मश्रूणि । राजा मे प्राणो अमृतँ सम्राट्चक्षुर्विराट्श्रोत्रम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
शिरः। मे। श्रीः। यशः। मुखम्। त्विषिः। केशाः। च। श्मश्रूणि। राजा। मे। प्राणः। अमृतम्। सम्राडिति सम्ऽराट्। चक्षुः। विराडिति विऽराट्। श्रोत्रम्॥५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! राज्येऽभिषिक्तस्य मे मम श्रीः शिरो यशो मुखं त्विषिः केशाः श्मश्रूणि च राजा मे प्राणोऽमृतं सम्राट् चक्षुर्विराट् श्रोत्रं चास्त्येवं यूयं जानीत॥५॥
पदार्थः
(शिरः) उत्तमाङ्गम् (मे) मम (श्रीः) श्रीः शोभा धनं च (यशः) सत्कीर्तिकथनम् (मुखम्) आस्यम् (त्विषिः) न्यायप्रदीप्तिरिव (केशाः) (च) (श्मश्रूणि) मुखकेशाः (राजा) प्रकाशमानः (मे) (प्राणः) प्राणादिवायुः (अमृतम्) मरणधर्मरहितं चेतनं ब्रह्म (सम्राट्) सम्यक् प्रकाशमानम् (चक्षुः) नेत्रम् (विराट्) विविधशास्त्रश्रवणयुक्तम् (श्रोत्रम्) श्रवणेन्द्रियम्॥५॥
भावार्थः
यो राज्येऽभिषिक्तस्स्यात्, स शिरआद्यवयवान् शुभकर्मसु प्रेरयेत्॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! राज्य में अभिषेक को प्राप्त हुए (मे) मेरी (श्रीः) शोभा और धन (शिरः) शिरस्थानी (यशः) सत्कीर्ति का कथन (मुखम्) मुखस्थानी (त्विषिः) न्याय के प्रकाश के समान (केशाः) केश (च) और (श्मश्रूणि) दाढ़ी-मूंछ (राजा) प्रकाशमान (मे) मेरा (प्राणः) प्राण आदि वायु (अमृतम्) मरणधर्मरहित चेतन ब्रह्म (सम्राट्) अच्छे प्रकार प्रकाशमान (चक्षुः) नेत्र (विराट्) विविध शास्त्रश्रवणयुक्त (श्रोत्रम्) कान है, ऐसा तुम लोग जानो॥५॥
भावार्थ
जो राज्य में अभिषिक्त राजा होवे सो शिर आदि अवयवों को शुभ कर्मो में प्रेरित रक्खे॥५॥
विषय
सम्राट् का तेजस्वी रूप सम्राट् और विराट् का आंख-कान का सा सम्बन्ध ।
भावार्थ
हे प्रजाजनो ! राज्य में अभिषिक्त (मे) मुझ राजा की (श्री:) शोभा, ऐश्वर्य (शिरः) मेरे शिर के समान प्रतिष्ठारूप है | ( यशःमुखम् ) यश, मुख के समान दर्शनीय हैं । (त्विषिः) ओज, कान्ति, पराक्रम, शौर्य ( श्मश्रूणि केशाः च ) शिर के केश और मूछों के समान तेजस्विता के सूचक हैं । ( मे ) मुझ राष्ट्र का ( प्राणः ) प्राण (राजा) का पद या स्वयं राजा (अमृतम् ) जीवन रूप है । (सम्राट् ) सम्राट् का पद (चक्षुः) आंख के समान सर्व साक्षीरूप हैं । ( विराट् ) विविध विद्वान् सभासदों से प्रकाशमान राजसभा ( श्रोत्रम् ) शरीर में श्रोत्र के समान प्रजा राजा के समस्त व्यवहारों को श्रवण करने वाला हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिः। सभेशः । अनुष्टुप् । गांधारः ॥
विषय
व्रत-धारण
पदार्थ
१. अभिषिक्त राजा उपस्थित प्रजाजन को सम्बोधित करता हुआ कहता है कि मैं प्रयत्न करूँगा कि (मे शिरः) = मेरा मस्तिष्क (श्रीः) = सदा ' श्रीसम्पन्न हो, उसमें सदा उत्तम विचारों को ही स्थान मिले। २. (मुखं यश:) = मेरा मुख यशस्वी हो, अर्थात् मेरे मुख से किसी प्रकार के अशुभ शब्दों का उच्चारण न हो। ३. (श्मश्रूणि) = [श्मनि श्रितम् ] शरीर में आश्रित 'इन्द्रियाँ - मन व बुद्धि' ये सब (त्विषि:) = दीप्ति के पुञ्ज हों (च) और (केशाः) = ज्ञान की रश्मियों से युक्त हों। ये सब अपने-अपने कार्य को करने में समर्थ होकर चमकें । ये सब = ज्ञान की किरणों से दीप्त हों। ४. (मे प्राण:) = मेरी प्राणशक्ति (राजा) = मेरे जीवन को दीप्त करनेवाली हो [ राजू दीप्तौ ] तथा यह मेरे जीवन को बड़ा व्यवस्थित बनाए। साथ ही यह प्राणशक्ति (अमृतम्) = मुझे रोगों से मरने न दें। मुझे नीरोग बनाकर पूर्ण शतमान आयुवाला बनाए । ५. (चक्षुः) = मेरी आँख सम्राट् सम्यक् प्रकाशमान हो । मानस स्वास्थ्य के कारण मेरी आँख में नैर्मल्य की चमक हो । ६. (श्रोत्रम्) = मेरा कान, वेदज्ञान को श्रवण करने के कारण, (विराट्) = विशिष्ट रूप से शोभायमान हो। आचार्य दयानन्द के शब्दों में यह विविध शास्त्र श्रवणयुक्त हो और इसीलिए यह (विराट्) = चमकनेवाला हो।
भावार्थ
भावार्थ - राजा के व्रत हैं- [क] मैं मस्तिष्क में पवित्र विचारों को धारण करूँगा, [ख] मेरा मुख यशस्वी शब्दोंवाला हो, [ग] मेरी इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि सब-के-सब दीप्त व ज्ञान की रश्मियोंवाले हों, [घ] प्राण मेरी दीप्ति व अमरता का कारण हो, [ङ] चक्षु सम्राट् हो और [च] कान विराट् हो ऐसा मैं प्रयत्न करूँगा। ।
मराठी (2)
भावार्थ
राज्याभिषिक्त राजाने आपल्या सर्व इंद्रियांना व प्राणाला शुभ कर्मात प्रेरित करावे.
विषय
पुनश्च, तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (राजा म्हणतो) हे प्रजाजनहो, (तुम्ही मला राज्याभिषेकाद्वारे नियुक्त केले आहे)^ (मे) माझे (श्रीः) धन आणि शोभा (शिरः) हेच माझे शिर आहे (कीर्तिला व राज्यसंपदेला मी शिराप्रमाणे जपेन) माझी (यशः) सत्कर्ती (मुखम्) हेच माझे मुख राहील (लोक मुखाने माझी कीर्ति सांगतील, दुष्कीर्ती माझी होणार नाही) (त्विषिः) न्याया ने राज्य करणे मला (केशाः) केश (च) आणि (श्मश्रूणि) दाढी-मिशा-जपण्या प्रमाणे महत्वाचे वाटेल. (राजा) तुमच्या प्रकाशवंत या राजाचे (प्राणः) आदी वायू (नियंत्रित राहतील) (अमृतम्) मरणधर्मरहित चेतन ब्रैमाप्रमाणे मी (सम्राट) उत्तमप्रकारे प्रकाशमान वा यशवंत राहीन. (चक्षुः) माझे नेत्र (विराट्) विविध शास्त्रांचे अध्ययन-अभ्यास करणारे राहणार असून माझे (श्रोत्रम्) सदैव तुमचे वचन (तक्रार, प्रार्थना आदी) निश्चयाने विश्वास ठेवा ॥5॥
भावार्थ
भावार्थ - जो राज्याचा अभिषिक्त राजा असेल, त्याने आपल्या शिर आदी अवयवांना सदा शुभकर्मांत मग्न ठेवावे ॥5॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May my head be full of grace, my mouth of fame, my hair and beard, of brilliant sheen, my breath, of light and deathlessness, my eye, of even-handed love, my ear, of religious lore.
Meaning
People of the world: honour of the human nation is my head, nobility of the people is my mouth, light of justice and grandeur of world culture is my hair, moustache and beard, good governance is my life and breath, unity of the order is my vision, and diversity of the constituents is my ear.
Translation
Splendour is my head; fame is my face: lustre is my hair, moustache and beard; the kingship is my neverdying breath; the emperorship is my vision the overlordship is my hearing. (1)
Notes
Rājā, kingship. Or, brilliant. Samrät, emperorship. Virät, overlordship. The sacrificer assumes finest qualities in all the parts of his body; at least he resolves or wishes to have them.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! রাজ্যে অভিষেক প্রাপ্ত (মে) আমার (শ্রীঃ) শোভা ও ধন (শিরঃ) শিরস্থানী (য়শঃ) সৎকীর্ত্তির কথন (মুখম্) মুখস্থানী (ত্বিষিঃ) ন্যায়ের প্রকাশের সমান (কেশাঃ) কেশ (চ) এবং (শ্মশ্রূণি) শ্মশ্রূ-গুম্ফ (রাজা) প্রকাশমান (মে) আমার (প্রাণঃ) প্রাণাদি বায়ু (অমৃতম্) মরণধর্মরহিত চেতন ব্রহ্ম (সম্রাট্) উত্তম প্রকারে প্রকাশমান (চক্ষুঃ) নেত্র (বিরাট্) বিবিধ শাস্ত্র-শ্রবণযুক্ত (শ্রোত্রম্) কান, এইরূপ তোমরা জানিবে ॥ ৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যে রাজ্যে অভিষিক্ত রাজা হইবে সে শিরাদি অবয়বসকলকে শুভ কর্মে প্রেরিত রাখিবে ॥ ৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
শিরো॑ মে॒ শ্রীর্য়শো॒ মুখং॒ ত্বিষিঃ॒ কেশা॑শ্চ॒ শ্মশ্রূ॑ণি ।
রাজা॑ মে প্রা॒ণোऽঅ॒মৃত॑ꣳ স॒ম্রাট্ চক্ষু॑র্বি॒রাট্ শ্রোত্র॑ম্ ॥ ৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
শিরো ম ইত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । সভাপতির্দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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