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यजुर्वेद अध्याय - 20

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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 34
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - लिङ्गोक्ता देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    71

    प्रा॒ण॒पा मे॑ऽअपान॒पाश्च॑क्षु॒ष्पाः श्रो॑त्र॒पाश्च॑ मे। वा॒चो मे॑ वि॒श्वभे॑षजो॒ मन॑सोऽसि वि॒लाय॑कः॥३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒ण॒पा इति॑ प्राण॒ऽपाः। मे॒। अ॒पा॒न॒पा इत्य॑पान॒ऽपाः। च॒क्षु॒ष्पाः। च॒क्षुः॒पा इति॑ चक्षुः॒ऽपाः। श्रो॒त्र॒पा इति॑ श्रोत्र॒ऽपाः। च॒। मे॒। वा॒चः। मे॒। वि॒श्वभे॑षज॒ इति॑ वि॒श्वऽभे॑षजः। मन॑सः। अ॒सि॒। वि॒लाय॑क॒ इति॑ वि॒ऽलाय॑कः ॥३४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राणपा मेऽअपानपाश्चक्षुष्पाः श्रोत्रपाश्च मे । वाचो मे विश्वभेषजो मनसो सि विलायकः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्राणपा इति प्राणऽपाः। मे। अपानपा इत्यपानऽपाः। चक्षुष्पाः। चक्षुःपा इति चक्षुःऽपाः। श्रोत्रपा इति श्रोत्रऽपाः। च। मे। वाचः। मे। विश्वभेषज इति विश्वऽभेषजः। मनसः। असि। विलायक इति विऽलायकः॥३४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 34
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे विद्वन्! यतस्त्वं मे प्राणपा अपानपा मे चक्षुष्पाः श्रोत्रपाश्च मे वाचो विश्वभेषजो मनसो विज्ञानसाधकस्य विलायकोऽसि, तस्मात् त्वं पितृवत् सत्कर्त्तव्योऽसि॥३४॥

    पदार्थः

    (प्राणपाः) यः प्राणं पाति रक्षति (मे) मम (अपानपाः) योऽपानं पाति (चक्षुष्पाः) यश्चक्षुः पाति (श्रोत्रपाः) यः श्रोत्रं पाति (च) (मे) मम (वाचः) (मे) (विश्वभेषजः) (मनसः) (असि) (विलायकः) येन विविधतया लीयते श्लिष्यते॥३४॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्ये बाल्याऽवस्थामारभ्य विद्यासुशिक्षाभ्यां जितेन्द्रियत्वं विद्यासत्पुरुषसङ्गप्रियत्वं धर्मात्मपरोपकारित्वं च ग्राहयन्ति ते मातृवत् मित्रवच्च विज्ञेयाः॥३४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वन्! जिससे तू (मे) मेरे (प्राणपाः) प्राण का रक्षक (अपानपाः) अपान का रक्षक (मे) मेरे (चक्षुष्पाः) नेत्रों का रक्षक (श्रोत्रपाः) श्रोत्रों का रक्षक (च) और (मे) मेरी (वाचः) वाणी का (विश्वभेषजः) सम्पूर्ण ओषधिरूप (मनसः) विज्ञान का सिद्ध करनेहारे मन का (विलायकः) विविध प्रकार से सम्बन्ध करने वाला (असि) है, इस से तू हमारे पिता के समान सत्कार करने योग्य है॥३४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि जो बाल्यावस्था का आरम्भ कर विद्या और अच्छी शिक्षा से जितेन्द्रियपन, विद्या सत्पुरुषों के साथ प्रीति तथा धर्मात्मा और परोपकारीपन को ग्रहण कराते हैं, वे माता के समान और मित्र के समान जानने चाहियें॥३४॥

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    विषय

    राष्ट्रशरीर की प्रधान शक्तियों के रक्षणकर्त्ता के पद पर नियुक्ति ।

    भावार्थ

    हे परमेश्वर राजन् ! विद्वन् ! आचार्य ! तू (मे) मुझ शिष्य जन और प्रजाजन के ( प्राणपाः) प्राणों का पालक, (अपानपाः) अपानों का पालक, (श्रोत्रपाः) श्रोत्रों का पालक, (मे बाचः) मेरी वाणियों के (विश्वभेषजः) सब दोषों को दूर करने वाला और (मनसः ) मन को (विलायकः) विविध मार्गों में लगाने हारा है । वा अपने में मान करने वाला है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    लिंगोक्ता देवताः । अनुष्टुप् । गांधारः ॥

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    विषय

    मन का विलायक

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार उपासना व यम-नियमों के पालन से प्रभु का अपने में ग्रहण करनेवाला व्यक्ति अनुभव करता है कि हे प्रभो! आप (मे) = मेरे (प्राणपा:) = प्राणों की रक्षा करनेवाले हो । (अपानपा:) = मेरे अपान की रक्षा करनेवाले हो । जहाँ आप मेरे बल को बढ़ाते हैं, वहाँ मेरी दोष - दूरीकरण की शक्ति को भी स्थिर रखते हैं । २. (चक्षुष्पा:) = आप मेरी आँखों की रक्षा करनेवाले हैं तथा (श्रोत्रपाः च मे) = मेरे श्रात्रों को सुरक्षित करनेवाले हैं। इन सुरक्षित आँखों व श्रोत्रों की शक्ति से मेरा ज्ञान निरन्तर वृद्धि को प्राप्त करता है। प्राणापान की रक्षा से शरीर का स्वास्थ्य प्राप्त हुआ था तो इन (चक्षुः) = नेत्रों की रक्षा से मुझे दृष्टि का स्वास्थ्य मिलता है। ३. हे प्रभो! आप (मे वाचः) = मेरी वाणी के (विश्वभेषजः) = सब दोषों की औषध हैं। मेरी वाणी आपकी उपासना से पवित्र होकर अपशब्दों व अनृत का उच्चारण नहीं करती, वह आपके नामजप आदि पवित्र कार्यों में ही प्रवृत्त रहती है। और ४. हे प्रभो ! आप (मनसः) = मेरे मन के (विलायकः असि) = विलायक हैं [विलाययति विषयेभ्यो निवर्त्यात्मनि स्थापयति-म०] मेरे मन को विषयों से व्यावृत्त करके अपने में स्थापित करनेवाले हैं। भौतिक वस्तुओं में थोड़ी देर तक स्थिर रहकर मन फिर भटक जाता है, क्योंकि उनका आगा-पीछा देखकर उसकी उत्सुकता समाप्त हो जाती है, परन्तु एक बार प्रभु में चलने लगा तो वह फिर ओर-छोर को न पाकर वहीं उलझा रह जाएगा। उस प्रभु की अनन्तता में ही विलीन - सा हो जाएगा, अतः मन प्रभु को पाकर ही स्थिर होगा। अन्यथा भटकता ही रहेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- - जब हम प्रभु को अपने में धारण कर पाते हैं तब [क] प्राणापान सुरक्षित होकर हमारे शरीर का बल बढ़ता है, [ख] चक्षुः श्रोत्र की रक्षा लेकर हमारा ज्ञान बढ़ता है. [ग] हमारी वाणी प्रभुनाम-स्मरण से सब दोषों से निवृत्त हो जाती है, हम शुभ ही शब्दों को बोलते हैं, [घ] प्रभु में हमारा मन ऐसा विलीन हो जाता है कि अपने आप ही वह विषयव्यावृत्त हो जाता है, विषय उसके लिए नीरस हो जाते हैं।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे विद्वान, माणसांना बाल्यावस्थेपासून विद्या व चांगले संस्कार देऊन जितेंद्रियता, सत्पुरुषांबरोरब प्रेम, धर्म व परोपकार शिकवितात ते आई, वडील व मित्राप्रमाणे जाणावे.

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    विषय

    पुनश्च तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (शिष्ट म्हणतो) हे विद्वान अध्यापक महोदय, आपण (मे) माझ्या (प्राणपाः) प्राणांचे रक्षक आहात. आपणच माझ्या (अपानपाः) अपानाचे रक्षक असून (मे) माझ्या (चक्षुष्पाः) नेत्रांचे रक्षक (आहात) आपणच माझ्या (श्रोत्रपाः) कानांचे रक्षक (च) आणि (मे) माझ्या (वाचः) वाणीचे रक्षक आहात. (माझ्या प्राण, अपान, नेत्र, कर्ण , जिह्वा सर्व अवयवांवर नियंत्रण करण्याची विद्या, योगविद्या शिकविणारे आपण आहात.) आपण (विश्वभेषजः) माझ्यासाठी संपूर्ण औषधी (रोगापासून मला मुक्त करणारे वा दूर ठेवणारे) आहात. आपणच (मनसः) विज्ञानप्राप्तीचे जे साधन, त्या माझ्या मनाशी (विलायकः) विविधप्रकारे संबंध ठेवणारे (माझ्या मनावर नियंत्रण करणारे) (असि) आहात. त्यामुळे आपण मला वडिलांप्रमाणे पूजनीय वा सत्कार करण्यास योग्य आहात. ॥34॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यासाठी हे उचित कर्म आहे की जे (अध्यापक, उपदेशक) बाल्यावस्थापासून आपल्याला विद्या, सुशिक्षा देत जितेंद्रिय करतात, सत्पुरूषांविषयी आपल्या मनात प्रेम उत्पन्न करतात, धर्म, विद्या आणि परोपकार यांकडे आपली प्रवृत्ती निर्माण करतात, ते अध्यापक आईप्रमाणे आणि मित्रा प्रमाणे आहेत, असे जाणावे ॥34॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O God, Thou art the guardian of my inner breath and outward breath, the guardian of my eye and ear. All-healer of my voice, Thou art the mollifier of my mind.

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    Meaning

    Soma, teacher scholar, you are protector of my prana, apana, eye and ear, speech and language, and you are the master and controller of my mind.

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    Translation

    O Lord, you are protector of my in-breath, protector of my out-breath, protector of my vision and protector of my hearing. You are a cure-all remedy for my speech and you are a tranquilizer for my mind. (1)

    Notes

    Vilayakaḥ, विलाययति विषयेभ्यो निवर्त्य आत्मनि स्थापयति य: स:, one that detracts (the mind) from worldly things and diverts it towards the soul or the Self. Also, tranquilizer. Visvabheṣajaḥ, a cure-all remedy.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে বিদ্বন্ ! যদ্দ্বারা তুমি (মে) আমার (প্রাণপাঃ) প্রাণের রক্ষক (অপানপাঃ) অপানের রক্ষক (মে) আমার (চক্ষুষ্পাঃ) নেত্রের রক্ষক (শ্রোত্রপাঃ) শ্রোত্রের রক্ষক (চ) এবং (মে) আমার (বাচঃ) বাণীর (বিশ্বভেষজঃ) সম্পূর্ণ ওষধিরূপ (মনসঃ) বিজ্ঞান সিদ্ধকারী মনের (বিলায়কঃ) বিবিধ প্রকারে সম্বন্ধকারক (আদি) হও, এইজন্য তুমি আমাদের পিতার সমান সৎকার করার যোগ্য ॥ ৩৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের কর্ত্তব্য যে, যে বাল্যাবস্থার আরম্ভ করিয়া বিদ্যা ও উত্তম শিক্ষা দ্বারা জিতেন্দ্রিয়ত্ব বিদ্যা সৎপুরুষদের সঙ্গে প্রীতি তথা ধর্মাত্মা ও পরোপকারীত্বকে গ্রহণ করায় তাহারা মাতার সমান এবং মিত্র সমান গণ্য হওয়া উচিত ॥ ৩৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    প্রা॒ণ॒পা মে॑ऽঅপান॒পাশ্চ॑ক্ষু॒ষ্পাঃ শ্রো॑ত্র॒পাশ্চ॑ মে ।
    বা॒চো মে॑ বি॒শ্বভে॑ষজো॒ মন॑সোऽসি বি॒লায়॑কঃ ॥ ৩৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    প্রাণপা ইত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । লিঙ্গোক্তা দেবতাঃ । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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