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यजुर्वेद अध्याय - 20

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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 9
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सभोशो देवता छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः
    408

    नाभि॑र्मे चि॒त्तं वि॒ज्ञानं॑ पा॒युर्मेऽप॑चितिर्भ॒सत्। आ॒न॒न्द॒न॒न्दावा॒ण्डौ मे॒ भगः॒ सौभा॑ग्यं॒ पसः॑। जङ्घा॑भ्यां प॒द्भ्यां धर्मो॑ऽस्मि वि॒शि राजा॒ प्रति॑ष्ठितः॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नाभिः॑। मे॒। चि॒त्तम्। वि॒ज्ञान॒मिति॑ वि॒ऽज्ञान॑म्। पा॒युः। मे॒। अप॑चिति॒रित्यप॑ऽचितिः। भ॒सत्। आ॒न॒न्द॒न॒न्दावित्या॑नन्दऽन॒न्दौ। आ॒ण्डौ। मे॒। भगः॑। सौभा॑ग्यम्। पसः॑। जङ्घा॑भ्याम्। प॒द्भ्यामिति॑ प॒त्ऽभ्याम्। धर्मः॑। अ॒स्मि॒। वि॒शि। राजा॑। प्रति॑ष्ठितः। प्रति॑स्थित॒ इति॒ प्रति॑ऽस्थितः ॥९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नाभिर्मे चित्तँविज्ञानम्पायुर्मे पचितिर्भसत् । आनन्दनन्दावाण्डौ मे भगः सौभाग्यम्पसः । जङ्घाभ्याम्पाद्भ्यान्धर्मा स्मि विशि राजा प्रतिष्ठितः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नाभिः। मे। चित्तम्। विज्ञानमिति विऽज्ञानम्। पायुः। मे। अपचितिरित्यपऽचितिः। भसत्। आनन्दनन्दावित्यानन्दऽनन्दौ। आण्डौ। मे। भगः। सौभाग्यम्। पसः। जङ्घाभ्याम्। पद्भ्यामिति पत्ऽभ्याम्। धर्मः। अस्मि। विशि। राजा। प्रतिष्ठितः। प्रतिस्थित इति प्रतिऽस्थितः॥९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! मे चित्तं नाभिर्विज्ञानं पायुर्मेऽपचितिर्भसदाण्डावानन्दनन्दौ मे भगः पसः सौभाग्यं सौभाग्ययुक्तं स्यादेवमहं जङ्घाभ्यां पद्भ्यां सह विशि प्रतिष्ठितो धर्मो राजाऽस्मि, यस्माद्यूयं मदनुकूला भवत॥९॥

    पदार्थः

    (नाभिः) शरीरमध्यदेशः (मे) मम (चित्तम्) (विज्ञानम्) सम्यग् ज्ञानं विविधज्ञानं वा (पायुः) गुदेन्द्रियम् (मे) (अपचितिः) प्रजाजनकम् (भसत्) भगेन्द्रियम् (आनन्दनन्दौ) आनन्देन संभोगजनितसुखेन नन्दतस्तौ (आण्डौ) अण्डाकारौ वृषणौ (मे) (भगः) ऐश्वर्यम् (सौभाग्यम्) उत्तमैश्वर्यस्य भावः (पसः) लिङ्गम् (जङ्घाभ्याम्) (पद्भ्याम्) (धर्मः) पक्षपातरहितो न्यायो धर्म इव (अस्मि) (विशि) प्रजायाम् (राजा) प्रकाशमानः (प्रतिष्ठितः) प्राप्तप्रतिष्ठः॥९॥

    भावार्थः

    यस्सर्वैरङ्गैः शुभं कर्माऽऽचरेत्, स धर्मात्मा सन् प्रजायां सुप्रतिष्ठितो राजा स्यात्॥९॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! (मे) मेरी (चित्तम्) स्मरण करनेहारी वृत्ति (नाभिः) मध्यप्रदेश (विज्ञानम्) विशेष वा अनेक ज्ञान (पायुः) मूलेन्द्रिय (मे) मेरी (अपचितिः) प्रजाजनक (भसत्) योनि (आण्डौ) अण्डे के आकार के वृषणावयव (आनन्दनन्दौ) संभोग के सुख से आनन्दकारक (मे) मेरा (भगः) ऐश्वर्य्य (पसः) लिङ्ग और (सौभाग्यम्) पुत्र-पौत्रादि युक्त होवे, इसी प्रकार मैं (जङ्घाभ्याम्) जङ्घा और (पद्भ्याम्) पगों के साथ (विशि) प्रजा में (प्रतिष्ठितः) प्रतिष्ठा को प्राप्त (धर्मः) पक्षपातरहित न्यायधर्म के समान (राजा) राजा (अस्मि) हूं, जिससे तुम लोग मेरे अनुकूल रहो॥९॥

    भावार्थ

    जो सब अङ्गों से शुभ कर्म करता है, सो धर्मात्मा होकर प्रजा में सत्कार के योग्य उत्तम प्रतिष्ठित राजा होवे॥९॥

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    भावार्थ

    ( चित्तम् ) चित्त (मे. नाभिः) मेरी नाभि के समान है । (विज्ञानम् ) विज्ञान (पायुः) पायु, गुदा के समान है । (अपचितिः)पूजासामग्री या प्रजाओं का उत्पन्न होना, ( मे भसत् ) स्त्री शरीर के प्रजननाङ्ग के समान, (भगः) प्रजाओं का ऐश्वर्य, दोनों (मे) मेरे देह में, ( आनन्दनन्दौ) भोग सुख सम्पन्न ( आण्डौ) अण्डकोश के समान हैं । मैं (जंघाभ्यां पद्भ्याम् ) समृद्ध जंघाओं और पैरों से (धर्मः अस्मि) धारण करने वाला स्वतः धर्म हूँ । इस प्रकार से (विशि) समस्त प्रजा के स्वरूप - मैं भी (राजा) राजा मानो शरीर धर के ( प्रतिष्ठितः) प्रतिष्ठा को प्राप्त है । इसी प्रकार -- प्रत्येक पुरुष के शरीर में राष्ट्र के समस्त धर्म विद्यमान हैं। समाज और राष्ट्र के भिन्न-भिन्न विभागों के कर्त्तव्य शरीर के भिन्न- भिन्न भागों के धर्मों से तुलना करके जानने चाहिये । इस प्रकार राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक अपने शरीर के अंगों के समान राष्ट्र के अंगों को जाने -यही सच्ची देश भक्ति है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिः । सभेशः । षड्पदाऽनुष्टुप् निचृज्जगती वा । गांधारः ॥

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    पदार्थ

    १.राजा ही कहता है कि चित्तम्=स्मृति-प्रभु का स्मरण, अपने कर्त्तव्य का स्मरण तथा विज्ञानम्=कर्त्तव्याकर्त्तव्य का ज्ञान मे नाभिः मेरा केन्द्र हो ‘नह बन्धने’। इस चित्त व विज्ञान का मुझमें बन्धन हो। मैं चित्त व विज्ञान से पृथक् न होऊँ। २. अपचितिः= पूजा—प्रभु का पूजन तथा भसत् (भस दीप्तौ) ज्ञान की दीप्ति मे पायुः = मेरे रक्षक हों। जैसे शरीर में पायु=गुदेन्द्रिय सब मलों का निराकरण करके शरीर की रक्षा करता है, इसी प्रकार यह प्रभु-पूजन तथा ज्ञान मेरे मलों को दूर करके मेरा रक्षण करे। ३. आनन्दनन्दौ = आत्म-प्राप्ति का आनन्द अथवा मनः प्रसाद तथा नन्द=समृद्धि (नन्दति becomes prosperous) ये दोनों मे = मेरे आण्डौ (अमति = to serve) मेरी सेवा करनेवाले हों, अर्थात् मुझे पारलौकिक कल्याण व ऐहलौकिक समृद्धि प्राप्त हो। ४. भगः परमात्म-प्राप्ति का ऐश्वर्य व सौभाग्यम्=प्राकृतिक सम्पत्ति मे=मेरे पसः (स्पृशतिकर्मणः) स्पर्श करनेवाले हों, अर्थात् मैं सदा इनके सम्पर्क में रहूँ। ५. जङ्‌घाभ्यां पद्भ्याम् = मैं अपनी जाँघों से तथा पाँवों से धर्मः अस्मि=सबका धारण करनेवाला होऊँ। ‘ऊरू तदस्य यद् वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत’=जांघें वैश्य हैं, पाँव ‘शूद्र’। वैश्य धन का प्रतीक है तो शूद्र ‘श्रम’ का। मैं अपने धन व श्रम से सबका धारण करनेवाला बनूँ। ६. इस प्रकार राजा=दीप्त व व्यवस्थित जीवनवाला बनकर मैं विशि=प्रजा में प्रतिष्ठितः=प्रतिष्ठित होऊँ। प्रजा के जीवन को भी दीप्त व व्यवस्थित बनानेवाला होऊँ।

    भावार्थ

    राजा अपने जीवन में ‘चित्त-विज्ञान-अचिति (पूजा), भसत् (प्रकाश), आनन्द-नन्द-भग तथा सौभाग्य’ का समन्वय करके अपने धन व श्रम से प्रजा का धारक बने और प्रजा के जीवन को व्यवस्थित व दीप्त बनाए।

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    विषय

    प्रजा में प्रतिष्ठित

    पदार्थ

    १. राजा ही कहता है कि (चित्तम्) = स्मृति - प्रभु का स्मरण, अपने कर्त्तव्य का स्मरण तथा (विज्ञानम्) = कर्त्तव्याकर्त्तव्य का ज्ञान मे नाभि:- मेरा केन्द्र हो 'नह बन्धने'। इस चित्त व विज्ञान का मुझमें बन्धन हो। मैं चित्त व विज्ञान से पृथक् न होऊँ। २. (अपचितिः) - पूजा - प्रभु का पूजन तथा (भसत्) = [ भस दीप्तौ ] ज्ञान की दीप्ति मे (पायुः) = मेरे रक्षक हों। जैसे शरीर में पायु - गुदेन्द्रिय सब मलों का निराकरण करके शरीर की रक्षा करता है, इसी प्रकार यह प्रभु-पूजन तथा ज्ञान मेरे मलों को दूर करके मेरा रक्षण करे। ३. आनन्दनन्दौ आत्म-प्राप्ति का आनन्द अथवा मनःप्रसाद तथा नन्द-समृद्धि [नन्दति becomes prosperous] ये दोनों (मे) = मेरे (आण्डौ) = [ अमति = to serve] मेरी सेवा करनेवाले हों, अर्थात् मुझे पारलौकिक कल्याण व ऐहलौकिक समृद्धि प्राप्त हो। ४. (भगः) = परमात्म-प्राप्ति का ऐश्वर्य व (सौभाग्यम्) = प्राकृतिक सम्पत्ति (मे) = मेरे (पसः) = [ स्पृशतिकर्मणः] स्पर्श करनेवाले हों, अर्थात् मैं सदा इनके सम्पर्क में रहूँ। ५. (जङ्घाभ्यां पद्भ्याम्) = मैं अपनी जाँघों से तथा पाँवों से (धर्मः अस्मि) = सबका धारण करनेवाला होऊँ। (ऊरू तदस्य यद् वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत')जांघें वैश्य हैं, पाँव 'शूद्र'। वैश्य धन का प्रतीक है तो शूद्र 'श्रम' का। मैं अपने धन व श्रम से सबका धारण करनेवाला बनूँ। ६. इस प्रकार (राजा) = दीप्त व व्यवस्थित जीवनवाला बनकर मैं (विशि) = प्रजा में (प्रतिष्ठितः) = प्रतिष्ठित होऊँ। प्रजा के जीवन को भी दीप्त व व्यवस्थित बनानेवाला होऊँ। =

    भावार्थ

    भावार्थ - राजा अपने जीवन में 'चित्त-विज्ञान- अचिति [पूजा], भसत् [प्रकाश], आनन्द-नन्द-भग तथा सौभाग्य' का समन्वय करके अपने धन व श्रम से प्रजा का धारक बने और प्रजा के जीवन को व्यवस्थित व दीप्त बनाए ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जो सर्वांगाने शुभ कर्म करतो तो धर्मात्मा बनून प्रजेमध्ये सत्कार करण्यायोग्य उत्तम व प्रतिष्ठित राजा बनतो.

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    विषय

    पुन्हा, तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (राष्ट्रपतीचे अभिवचन प्रजेप्रति) हे मनुष्यांनो (प्रजाजनहो) (मे) माझी (चित्तम्‌) स्मरणशक्ती-वृत्ती, तसेच (नाभिः) नाभिप्रदेश (विज्ञानम्‌) माझ्यातील विशेष वा विवधि ज्ञान, (हे तुमच्या कल्याणाकरिताच आहे) माझे (पायुः) गुदेन्द्रिय (मे) माझी (अषचितिर्‌) संतान उत्पन्न करण्यास समर्थ अशी (भसत्‌) योनी (जननशक्ती) तसेच माझे (आण्डौ) अंडाकार आंड, (आनन्दनन्दौ) संभोगप्रसंगी आनंद देणारे (मे) माझे (भगः) ऐवर्यशाली (शक्तीशाली) (पसः) लिंग (शिश्न) (हे सर्व अवयव प्रजेच्या हितासाठी आहेत, ही खात्री बाळगा) हे माझे (सौग्यागम्‌) सौभाग्य आहे (की मी प्रजासेवक आहे) पुत्र-पौत्रादी युक्त सौभाग्यासह मी (जङ्घाभ्याम्‌) जंघा व (पदभ्याम्‌) पाय यांच्यासह मी (विशि) आपल्या प्रजेत (प्रतिष्ठितः) प्रतिष्ठा प्राप्त आहे (जनता मला मान देते) मी (धर्मः) पक्षपात सोडून न्यायाचे आचरण करणारा (राजा) राजा (अस्मि) आहे. यामुळे तुम्ही सर्व प्रजाजन मला सदैव अनुकूल रहा. ॥9॥^(विशेष) - या मंत्रात पुरूषवाचक इंद्रिये यथा-अण्ड, लिंग आदीचे वर्णन आहे. त्यामुळे राष्ट्राचा अध्यक्ष पुरूष असावा, हा अर्थ निघतो, पण त्या सोबत स्त्रीवाचक ‘भसत्‌` ‘योनी` या शब्दांचा वा अवयवांचा उल्लेख आहे. त्यावरून असा सांकेतिक अर्थ काढता येतो की राष्ट्राचा प्रमुख एखादी स्त्रीदेखील असू शकते, असा आदेश वेदमंत्र देत आहे. हा मी (अनुवादकाने काढलेला अर्थ योग्य किंवा कसा, याचा विचार विद्वानांनी करावा)

    भावार्थ

    भावार्थ - जरा राजा आपल्या सर्व शरीरावयवांनी शुभ कर्म करतो, तो धर्मात्मा असून प्रजेच्या हृदयात प्रतिष्ठित वा सम्मानित असतो (प्रजाजन त्यालाच मान देतात) ॥9॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May my memory, navel, knowledge, anus, my wifes productive womb, my testicles the givers of pleasure through cohabitation, my sovereignty and penis flourish. Standing on my legs and feet, in the midst of my subjects, free from favouritism, with even-handed justice, I rule as a king, with full fame.

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    Meaning

    I am the ruler, honoured and consecrated among my people. I am Dharma, the law, committed to bear the burden of the order on my legs and feet. My navel, mind, knowledge, security, honour and reverence, hips and loins, organs of excretion, generation and pleasure, honour and dignity, and good fortune all is for the order and the people.

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    Translation

    Thinking is my navel; correct information is my anus; worship is my vagina; joy and pleasure are my two testicles; wealth and good fortune are my penis; duty is my legs and feet; as such I am established as king among my people. (1)

    Notes

    Cittam, thinking; thought. Vijñānam, विशिष्ट ज्ञानं, cor rect information. Anandanandau, आनंद: नंदश्च, joy and pleasure. Janghä, leg, part below the knee. An allegoric description of kingship.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (মে) আমার (চিত্তম্) স্মরণবৃত্তি (নাভিঃ) মধ্যপ্রদেশ (বিজ্ঞানম্) বিশেষ বা অনেক জ্ঞান (পায়ুঃ) গুদেন্দ্রিয় (মে) আমার (অপচিতিঃ) প্রজাজনক (ভগৎ) যোনি (অন্ডৌ) অন্ডের আকার বৃষণাবয়ব (আনন্দনন্দৌ) সংভোগের সুখ দ্বারা আনন্দদায়ক (মে) আমার (ভগঃ) ঐশ্বর্য্য (পসঃ) লিঙ্গ ও (সৌভাগ্যম্) পুত্র-পৌত্রাদি যুক্ত হউক এই প্রকার আমি (জঙ্ঘাভ্যাম্) জঙ্ঘা ও (পদ্ভ্যম্) পদগুলি সহ (বিশি) প্রজায় (প্রতিষ্ঠিতঃ) প্রতিষ্ঠা প্রাপ্ত (ধর্মঃ) পক্ষপাতরহিত ন্যায়ধর্মের সমান (রাজা) রাজা (অস্মি) আছি যাহাতে তোমরা আমার অনুকূল থাক ॥ ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যিনি সব অঙ্গ দ্বারা শুভ কর্ম করেন তিনি ধর্মাত্মা হইয়া প্রজামধ্যে সৎকার যোগ্য উত্তম প্রতিষ্ঠিত রাজা হউক ॥ ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    নাভি॑র্মে চি॒ত্তং বি॒জ্ঞানং॑ পা॒য়ুর্মেऽপ॑চিতির্ভ॒সৎ ।
    আ॒ন॒ন্দ॒ন॒ন্দাবা॒ণ্ডৌ মে॒ ভগঃ॒ সৌভা॑গ্যং॒ পসঃ॑ ।
    জঙ্ঘা॑ভ্যাং প॒দ্ভ্যাং ধর্মো॑ऽস্মি বি॒শি রাজা॒ প্রতি॑ষ্ঠিতঃ ॥ ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    নাভির্ম ইত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । সভেশো দেবতা । নিচৃজ্জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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