यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 76
ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः
देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवता
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
51
यु॒वꣳ सु॒राम॑मश्विना॒ नमु॑चावासु॒रे सचा॑।वि॒पि॒पा॒नाः सर॑स्व॒तीन्द्रं॒ कर्म॑स्वावत॥७६॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम्। सु॒राम॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। नमु॑चौ। आ॒सु॒रे। सचा॑। वि॒पि॒पा॒ना इति॑ विऽपिपा॒नाः। स॒र॒स्व॒ति। इन्द्र॑म्। कर्म्म॒स्विति॒ कर्म॑ऽसु। आ॒व॒त॒ ॥७६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवँ सुराममश्विना नमुचावासुरे सचा । विपिपानाः सरस्वतीन्द्रङ्कर्मस्वावत ॥
स्वर रहित पद पाठ
युवम्। सुरामम्। अश्विना। नमुचौ। आसुरे। सचा। विपिपाना इति विऽपिपानाः। सरस्वति। इन्द्रम्। कर्म्मस्विति कर्मऽसु। आवत॥७६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः प्रकारान्तरेण विद्वद्विषयमाह॥
अन्वयः
हे अश्विना! सचा युवं हे सरस्वती त्वं च यथा नमुचावासुरे कर्मसु सुराममिन्द्रमावत तथा विपिपाना अप्याचरत॥७६॥
पदार्थः
(युवम्) युवाम् (सुरामम्) सुष्ठु रम्यम् (अश्विना) रक्षादिकर्मव्यापिनौ (नमुचौ) प्रवाहेण नित्यस्वरूपे (आसुरे) असुरो मेघ एव तस्मिन् (सचा) समवेताः (विपिपानाः) विविधरक्षादिकर्त्तारः। अत्र व्यत्ययेन लुग्विषये श्लुरात्मनेपदं च बहुलं छन्दसीतीत्वम् (सरस्वति) या प्रशस्तविज्ञानयुक्ता प्रजा तत्सम्बुद्धौ (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (कर्मसु) (आवत) पालयत॥७६॥
भावार्थः
ये पुरुषार्थेन महदैश्वर्यं प्राप्य धनं सुरक्ष्याऽनन्दं भुञ्जते, ते सदैव वर्द्धन्ते॥७६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर प्रकारान्तर से विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (अश्विना) पालन आदि कर्म करनेहारे अध्यापक और उपदेशक! (सचा) मिले हुए (युवम्) तुम दोनों और हे (सरस्वति) अतिश्रेष्ठ विज्ञान वाली प्रजा तू जैसे (नमुचौ) प्रवाह से नित्यरूप (आसुरे) मेघ में और (कर्मसु) कर्मों में (सुरामम्) अतिसुन्दर (इन्द्रम्) परमैश्वर्य का (आवत) पालन करते हो, वैसे (विपिपानाः) नाना प्रकार से रक्षा करनेहारे होते हुए आचरण करो॥७६॥
भावार्थ
जो लोग पुरुषार्थ से बड़े ऐश्वर्य को प्राप्त होकर धन की रक्षा करके आनन्द को भोगते हैं, वे सदा ही बढ़ते हैं॥७६॥
विषय
उषा, नक्त, अश्वि, तीन देवियां, सविता, वरुण का इन्द्र पद को पुष्ट करना ।
भावार्थ
हे (अश्विना) मुख्य पदाधिकारियो ! ( युवम् ) तुम दोनों एवं हे (सरस्वति) ज्ञानवाली विद्वत्सभे ! तुम मिलकर तीनों (आसुरे)असुर स्वभाव के ( नमुचौ ) शत्रु के सदा विद्यमान रहते हुए ( सुरामम् ) उत्तम रीति से भोगने करने योग्य, सुन्दर ( इन्द्रम् ) इन्द्र पद या ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र को (कर्मसु ) समस्त कर्मों में (विपिपानाः) विविध उपायों से रक्षा करते हुए ( अवतम् ) प्राप्त हों, उसकी रक्षा करें ।
टिप्पणी
‘०नमुचा आसुरे०' इति काण्व० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
[ ७६, ७७ ] अश्विसरस्वतीन्द्राः देवताः । विराड् अनुष्टुप् । गांधारः ॥
विषय
सुराम इन्द्र
पदार्थ
१. (अश्विना) = हे अश्विनीदेवो ! (युवम्) = तुम दोनों तथा (सरस्वति) = ज्ञानाधिदेवते ! (नमुचौ) = अपने धारणात्मक कर्म को न छोड़नेवाले आसुरे प्राणशक्ति को देनेवाले प्रभु में (सचा) = समवेत होकर रहनेवाले (सुरामम्) = [सुष्ठु रमते] उत्तमता से रमण व क्रीड़ा करनेवाले, संसार के सारे व्यवहारों को क्रीड़ारूप में ग्रहण करनेवाले, अतएव न खिझनेवाले (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (विपिपाना:) = विशेषरूप से रक्षित करते हुए (कर्मसु) = कर्मों में (आवत) = प्रीणित करो। यह इन्द्र कर्मों में आनन्द का अनुभव करे। २. इन्द्र वह है जो [क] संसार के सब व्यवहारों को करता हुआ प्रभु में स्थित होता है। यह प्रभु ही उसका वस्तुतः धारण कर रहे हैं और उसे सम्पूर्ण प्राणशक्ति प्राप्त कराते हैं। यह कभी खिझता नहीं । ३. इन्द्र वह है जो इन्द्रियों का अधिष्ठाता है । ४. यह इन्द्र प्राणापान की साधना करता है और सरस्वती की आराधना करता है। 'प्राणायाम व स्वाध्याय' इसके नैत्यिक कर्त्तव्य हैं । ५. यह सदा कर्मों में लगा रहता है। कर्मों में आनन्द का अनुभव करता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम सदा प्रभु के साथ रहें। किसी भी कर्म को करते हुए प्रभु को भूल न जाएँ । संसार के सब व्यवहारों को क्रीड़ारूप में लें, क्रियाशील बनें।
मराठी (2)
भावार्थ
जे लोक पुरुषार्थाने ऐश्वर्य प्राप्त करून धनाचे रक्षण करतात ते आनंद उपभोगतात व त्यांची भरभराट होते.
विषय
आता किंचित वेगळ्या पद्धतीने विद्वानांविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (अश्विना) पालन (रक्षण, प्रेरणा) आदी कर्म करणाऱ्या अध्यापक आणि उपदेशक जनहो, (युवस्) तुम्ही दोघे (युवम्) (सचा) मिळून आणि हे (सरस्वती) श्रेष्ठ विज्ञानवती प्रजा, (ज्ञानवती विदुषी स्त्री अथवा ज्ञान-विज्ञानसंपन्न हे प्रजा) तुम्ही सर्व ज्याप्रमाणे (नमुचौ) प्रवाहाने नित्यरूप असलेल्या (आसुरे) मेघमंडलामधे (विदारण, विघटन करणाऱ्या सूर्याप्रमाणे) (कर्मसु) कर्म करण्यात (सुरामम्) अति सुंदर (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्याचे (आवत) पालन करता (ज्ञान आणि ऐश्वर्य या दोन्हीची वृद्धी करता) त्याप्रमाणे (विपिपानाः) नानाप्रकारे आमचे रक्षण करीत राहा ॥76॥
भावार्थ
भावार्थ - जे लोक पुरूर्षार्थाद्वारे पुष्कळ धनसंपदा अर्जित करतात आणि समर्थपणे त्या ऐश्वर्याचे रक्षण पण करतात, ते नेहमी आनंद उपभोगतात व सदा प्रगती करीत असतात ॥76॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O teacher and preacher, ye both, cooperating together, and learned subjects, like the uninterrupted eternal cloud, behave most beautifully in sovereign deeds, and so act as our protectors in diverse ways.
Meaning
Come Ashvinis, both protector promoters of life, come-Sarasvati, enlightened mothers of the land, come all of you together, and, drinking deep at the nation’s fount of glory, defend her honour at every move in the onward march to progress within the ceaseless flow of divine evolution.
Translation
May you, O twin healers, and the Doctress divine, drink together the cure-juice, mixed with fermented beverage and assist the aspirant in his struggle against the wicked and unsocial elements. (1)
Notes
Āsure namucau, (in the actions) against the wicked and unsocial elements. Surāmam,सुष्ठु रम्यं, pleasant; delightful. Vipipānāḥ, विविधं पिबंत:, drinking together. Also, विविधरक्षादिकर्तारः, protecting in various ways.
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ প্রকারান্তরেণ বিদ্বদ্বিষয়মাহ ॥
পুনঃ প্রকারান্তরে বিদ্বান্দের বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (অশ্বিনা) পালনাদি কর্মকারী অধ্যাপক ও উপদেশক ! (সচা) সমবেত (য়ুবম্) তোমরা দুইজন এবং হে (সরস্বতি) অতিশ্রেষ্ঠ বিজ্ঞানসম্পন্না প্রজা ! তোমরা যেমন (নমুচৌ) প্রবাহ হইতে নিত্যরূপ (আসুরে) মেঘে এবং (কর্মসু) কর্মে (সুরামম্) অতিসুন্দর (ইন্দ্রম্) পরমৈশ্বর্য্যের (আবত) পালন কর সেইরূপ (বিপিপানাঃ) নানা প্রকারে রক্ষা কর্ত্তা হইয়া আচরণ কর ॥ ৭৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যাহারা পুরুষার্থ দ্বারা মহদৈশ্বর্য্যকে প্রাপ্ত হইয়া ধনের রক্ষা করিয়া আনন্দ ভোগ করে, তাহারা সর্বদাই বৃদ্ধি লাভ করিতে থাকে ॥ ৭৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়ু॒বꣳ সু॒রাম॑মশ্বিনা॒ নমু॑চাবাসু॒রে সচা॑ ।
বি॒পি॒পা॒নাঃ সর॑স্ব॒তীন্দ্রং॒ কর্ম॑স্বাবত ॥ ৭৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়ুবমিত্যস্য বিদর্ভির্ঋষিঃ । অশ্বিসরস্বতীন্দ্রা দেবতা । বিরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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