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यजुर्वेद अध्याय - 20

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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 39
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    65

    जु॒षा॒णो ब॒र्हिर्हरि॑वान्न॒ऽइन्द्रः॑ प्रा॒चीन॑ꣳ सीदत् प्र॒दिशा॑ पृथि॒व्याः। उ॒रु॒प्रथाः॒ प्रथ॑मानꣳ स्यो॒नमा॑दि॒त्यैर॒क्तं वसु॑भिः स॒जोषाः॑॥३९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जु॒षा॒णः। ब॒र्हिः। हरि॑वा॒निति॒ हरि॑ऽवान्। नः॒। इन्द्रः॑। प्रा॒चीन॑म्। सी॒द॒त्। प्र॒दिशेति॑ प्र॒ऽदिशा॑। पृ॒थि॒व्याः। उ॒रु॒प्रथा॒ इत्यु॑रु॒ऽप्रथाः॑। प्रथ॑मानम्। स्यो॒नम्। आ॒दि॒त्यैः। अ॒क्तम्। वसु॑भि॒रिति॒ वसु॑ऽभिः। स॒जोषा॒ इति॑ स॒ऽजोषाः॑ ॥३९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जुषाणो बर्हिर्हरिवान्नऽइन्द्रः प्राचीनँ सीदत्प्रदिशा पृथिव्याः । उरुप्रथाः प्रथमानँ स्योनमादित्यैरक्तँवसुभिः सजोषाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    जुषाणः। बर्हिः। हरिवानिति हरिऽवान्। नः। इन्द्रः। प्राचीनम्। सीदत्। प्रदिशेति प्रऽदिशा। पृथिव्याः। उरुप्रथा इत्युरुऽप्रथाः। प्रथमानम्। स्योनम्। आदित्यैः। अक्तम्। वसुभिरिति वसुऽभिः। सजोषा इति सऽजोषाः॥३९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 39
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे विद्वन्! यथा बर्हिर्जुषाणो हरिवान् उरुप्रथा आदित्यैर्वसुभिः सजोषा इन्द्रः पृथिव्याः प्रदिशा प्रथमानमक्तं प्राचीनं स्योनं सीदत् तथा त्वं नोऽऽस्माकं मध्ये भव॥३९॥

    पदार्थः

    (जुषाणः) सेवमानः (बर्हिः) अन्तरिक्षम्। बर्हिरित्यन्तरिक्षनामसु पठितम्॥ (निघं॰१.३) (हरिवान्) बहवो हरयो हरणशीलाः किरणा विद्यन्ते यस्य सः (नः) अस्माकम् (इन्द्रः) जलानां धर्त्ता (प्राचीनम्) प्राक्तनम् (सीदत्) सीदति (प्रदिशा) उपदिशा (पृथिव्याः) भूमेः (उरुप्रथाः) बहुविस्तारः (प्रथमानम्) (स्योनम्) सुखकारकं स्थानम् (आदित्यैः) मासैः (अक्तम्) प्रसिद्धम् (वसुभिः) पृथिव्यादिभिः (सजोषाः) सह वर्त्तमानः॥३९॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरहर्निशं प्रयत्नादादित्यवदविद्यान्धकारं निवार्य जगति महत्सुखं कार्य्यम्। यथा पृथिव्याः सकाशात् सूर्यो महान् वर्तते, तथाऽविदुषां मध्ये विद्वानिति बोध्यम्॥३९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वन्! जैसे (बर्हिः) अन्तरिक्ष को (जुषाणः) सेवन करता हुआ (हरिवान्) जिस के हरणशील बहुत किरणें विद्यमान (उरुप्रथाः) बहुत विस्तार युक्त (आदित्यैः) महीनों और (वसुभिः) पृथिव्यादि लोकों के (सजोषाः) साथ वर्त्तमान (इन्द्रः) जलों का धारणकर्त्ता सूर्य्य (पृथिव्याः) पृथिवी से (प्रदिशा) उपदिशा के साथ (प्रथमानम्) विस्तीर्ण (अक्तम्) प्रसिद्ध (प्राचीनम्) पुरातन (स्योनम्) सुखकारक स्थान को (सीदत्) स्थित होता है, वैसे तू (नः) हमारे मध्य में हो॥३९॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि रात-दिन प्रयत्न से आदित्य के तुल्य अविद्यारूपी अन्धकार का निवारण करके जगत् में बड़ा सुख प्राप्त करें। जैसे पृथिवी से सूर्य बड़ा है, वैसे अविद्वानों में विद्वान् को बड़ा जानें॥३९॥

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    विषय

    सूर्य के समान इरिवान् इन्द्र राजा का स्वरूप।

    भावार्थ

    (बर्हिः जुषाण : इन्द्रः ) अन्तरिक्ष में विराजमान सूर्य जिस प्रकार ( पृथिव्याः ) पृथिवी के ( प्राचीनम् ) प्राचीन दिशा के प्रदेश में (प्र-दिशा ) प्रबल तेज से विराजता है और ( हरिवान् ) किरणों से युक्त सूर्य जिस प्रकार (आदित्यैः) अपने किरणों से (अरक्तम्) प्रकाशित (बहि:)महान् ब्रह्माण्ड या अन्तरिक्ष में ( आ सीदत् ) विराज जाता है । उसी प्रकार ( हरिवान् ) तीव्र वेगवान् अश्वों और तीव्र मतिमान्, विद्वान्, वीर पुरुषों का स्वामी, (इन्द्रः) शत्रुनाशक, ऐश्वर्यवान् राजा - (प्र-दिशा ) अपने उत्कृष्ट शासन के बल से (पृथिव्याः) पृथिवी (बहि:) महान्, बृहत् राष्ट्र या ऐश्वर्य को (जुषाणः) स्वीकार करता हुआ, (उरुप्रथाः) अति विस्तृत शक्तिशाली होकर (आदित्यैः) सूर्य के किरणों के समान तेजस्वी, (वसुभिः) बसने वाले प्रजा के विद्वान् पुरुषों द्वारा, अथवा (आदित्यैः वसुभिः) प्राप्त करने योग्य ऐश्वर्यों से सम्पन्न होकर (अक्तम् ) प्रकाशित; तेजोमय ( स्योनम् ) सुखकारी (प्रथमानम् ) विख्यात, विस्तृत एवं ( प्राचीनम् ) अति उत्कृष्ट राज्य को ( आसीदत् ) विराजे ।

    टिप्पणी

    दूषितो ०' इति काण्व० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आंगिरस ऋषिः । बर्हिष्पान् इन्द्रो देवता । निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    सजोषाः

    पदार्थ

    १. (जुषाण:) = गतमन्त्र के अन्तिम शब्दों के अनुसार यज्ञों का सेवन करता हुआ २.(हरिवान्) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाला २. (नः) = हमारा अर्थात् प्रभु का भक्त ४. (इन्द्रः) = असुरों का संहार करनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष ५. (उरुप्रथा:) = खूब विस्तारवाला, उदार हृदयवाला, ६. (सजोषा:) = प्रीति से युक्त, अर्थात् सदा सन्तुष्ट व प्रसन्न [प्रीत्या सहितः सन्तुष्टः - म०] ७. (पृथिव्याः प्रदिशा) = पृथिवी के प्रकृष्ट संकेत से, अर्थात् मानो यह पृथिवी उसे अपने विस्तार का संकेत करती हुई हृदय को भी विस्तारवाला बनाने का उपदेश दे रही हो। इस प्रकार पृथिवी के उपदेश के अनुसार [क] (प्रथमानम्) = अत्यन्त विस्तृत [ख] (स्योनम्) = सुखमय, सदा प्रसन्न [ग] (आदित्यै वसुभिः) = आदित्यों व वसुओं से (अक्तम्) = अलंकृत हो उत्तम, अर्थात् गुणों के आदान की भावना तथा उत्तम निवास बनाने की भावना से सुभूषित (प्राचीनम्) = [प्रागञ्चनं] निरन्तर आगे बढ़ने की भावनावाले व आगे बढ़नेवाले (बर्हिः) = वासनाशून्य हृदय में (सीदत) = स्थित होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- मनुष्य [क] यज्ञों का सेवन करें [ख] उत्तम इन्द्रियोंवाला बने [ग] प्रभु का होकर संसार में विचरे [घ] जितेन्द्रिय बने [ङ] उदार हो [च] सदा प्रीतियुक्त हो । ऐसा बनकर यह अपने हृदय को इस विशाल पृथिवी का स्मरण करते हुए [क] विशाल बनाये [ख] विशालता के द्वारा सुखमय बनाए [ग] गुणों का आदान व उत्तम निवास की भावना से युक्त हो [घ] 'इसमें निरन्तर आगे बढ़ने की भावना बनी रहे' इस बात का ध्यान करे।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी रात्रंदिवस प्रयत्न करून सूर्याप्रमाणे अविद्यारूपी अंधःकाराचे निवारण करून या जगात सुख प्राप्त करावे. जसा पृथ्वीपेक्षा सूर्य मोठा आहे, तसे अविद्वानांमध्ये विद्वान मोठा असतो हे जाणावे.

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    विषय

    पुन्हा त्याच विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वान, ज्याप्रमाणे (बर्हिः) अंतरिक्षाचे (जुषाणः) सेवन करीत (आकाशात विहार करीत) (हरिवान्‌) रसादींचे हरण करणाऱ्या किरणांनी युक्त आणि (उरुप्रथाः) अत्यंत विस्तृत क्षेत्रात प्रसृत (इन्द्रः) सूर्य (आदित्यैः) बारा महिने आणि (वसुभिः) पृथ्वी आदी लोकां (सजोषाः) सह वर्तमान होऊन (पृथिव्याः) पृथ्वीसह व (प्रदिशा) उपदिशांसह (प्रथमानम्‌) आपला प्रसार करीत (अक्तम्‌) प्रसिद्ध (प्राचीनम्‌) पुरातन (स्योनम्‌) आपल्या (स्योनम्‌) सुखकारक स्थानात (सीदत्‌) अवस्थित आहे (जसा सूर्य पृथ्वी, दिशा, उपदिशापर्यंत आपला विस्तार करून नित्य अशा भ्रमणकक्षेत फिरत असतो.) तशाप्रकारे (हे विद्वान, आपण आम्हा सामान्यजनांसह) आमच्या मधेच सदा रहा व आम्हास मार्गदर्शन करा) ॥39॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांकरिता हे हितावह आहे की त्यांनी अहोरात्र प्रयत्न करून, सूर्य जसा अंधकाराचे निवारण करतो, तद्वत अविद्यारूप अंधकार निवारित करावा आणि जसा सूर्य पृथ्वीपेक्षा मोठा आहे, तद्वत अविद्वान लोकांमधे विद्वानाला मोठा (व अनुकरणीय) मानावे. ॥39॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, just as the sun, residing in space, full of rays, vast in extent, accompanied by months and worlds like the Earth, stationed in an intermediate quarter from the Earth, full of expanse, famous and ancient, is occupying its pleasant orbit, so shouldst thou be amongst us.

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    Meaning

    Just as Indra, the sun, wielder of the waters and expansive lord of the rays of light, pervading the sky and regions of the universe, united with the Vasus and the Adityas, graces the ancient, vast, beautiful and celebrated floor of the earth, so please you, celebrated man of yajna, grace our home of yajna.

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    Translation

    May the resplendent one, master of good horses, attending our sacrifice far-spreading, extending his domain widely, accompanied and praised by young and old sages, be seated on the eastern side of the earth. (1)

    Notes

    Barhiḥ, यज्ञ:, sacrifice. Also, दर्भ:, grass-mat. Prācīnam sidat,सीदतु, may be seated on the eastern side. Uruprathaḥ, विस्तीर्णख्याति:, famed far and wide. Also, extending far and wide. Adityaih vasubhih , by old and young sages. Aktam, anointed.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে বিদ্বন্ ! যেমন (বর্হিঃ) অন্তরিক্ষকে (জুষাণঃ) সেবন করিয়া (হরিবান্) যাহার হরণশীল বহু কিরণ বিদ্যমান (উরুপ্রথাঃ) বহু বিস্তারযুক্ত (আদিত্যৈঃ) মাস এবং (বসুভিঃ) পৃথিব্যাদি লোকসমূহের (সজোষাঃ) সহ বর্ত্তমান (ইন্দ্রঃ) জলের ধারণকর্ত্তা সূর্য্য (পৃথিব্যাঃ) পৃথিবী হইতে (প্রদিশা) উপদিশার সঙ্গে (প্রথমানম্) বিস্তীর্ণ (অক্তম্) প্রসিদ্ধ (প্রাচীনম্) পুরাতন (স্যোনম্) সুখকারক স্থানকে (সীদত) স্থিত হয় সেইরূপ তুমি (নঃ) আমাদের মধ্যে আছো ॥ ৩ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, দিন-রাত্রির প্রযত্ন দ্বারা আদিত্যের তুল্য অবিদ্যারূপী অন্ধকারের নিবারণ করিয়া জগতে বড় সুখ প্রাপ্ত করিবে যেমন পৃথিবী হইতে সূর্য্য বড় সেইরূপ অবিদ্বান্দিগের মধ্যে বিদ্বান্কে বড় গণ্য করিবে ॥ ৩ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    জু॒ষা॒ণো ব॒র্হির্হরি॑বান্ন॒ऽইন্দ্রঃ॑ প্রা॒চীন॑ꣳ সীদৎ প্র॒দিশা॑ পৃথি॒ব্যাঃ ।
    উ॒রু॒প্রথাঃ॒ প্রথ॑মানꣳ স্যো॒নমা॑দি॒ত্যৈর॒ক্তং বসু॑ভিঃ স॒জোষাঃ॑ ॥ ৩ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    জুষাণ ইত্যস্যাঙ্গিরস ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । নিচৃৎ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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