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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 28
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - आसुरी गायत्री
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
वैरं॑ विकृ॒त्यमा॑ना॒ पौत्रा॑द्यं विभा॒ज्यमा॑ना ॥
स्वर सहित पद पाठवैर॑म् । वि॒ऽकृ॒त्यमा॑ना । पौत्र॑ऽआद्यम् । वि॒ऽभा॒ज्यमा॑ना ॥८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वैरं विकृत्यमाना पौत्राद्यं विभाज्यमाना ॥
स्वर रहित पद पाठवैरम् । विऽकृत्यमाना । पौत्रऽआद्यम् । विऽभाज्यमाना ॥८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 28
विषय - वैर......असमृद्धि......पाप......पारुष्य
पदार्थ -
१. 'एक बलदस राजन्य इस ब्रह्मगवी का हनन करता है, और परिणामतः राष्ट्र में किस प्रकार का विनाश उपस्थित होता है' इसका यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार में वर्णन किया गया है। कहते हैं कि यह ब्रह्मगवी (विकृत्यमाना) = विविध प्रकार से छिन्न की जाती हुई। अपने विद्वेषियों के लिए (वैरम्) = वैर को उत्पन्न करती है, ये ब्रह्मगवी का विकृन्तन करनेवाले परस्पर वैर-विरोध में लड़ मरते हैं। (विभाज्यमाना) = अंग-अंग काटकर आपस में बाँटी जाती हुई ब्रह्मगवी (पौत्राद्यम्) = पुत्र-पौत्र आदि को खा जानेवाली होती है। (ह्रियमाना) = हरण की जाती हुई यह (देवहेति:) = इन्द्रियों [इन्द्रियशक्तियों] की विनाशक होती है, और (हृता) = हरण की गई होने पर (व्यृद्धिः) = सब प्रकार की असमृद्धि का कारण बनती है। २. (अधिधीयमाना) = इस ब्रह्मण्य द्वारा अधिकार में रक्खी हुई-पूर्णरूप से प्रतिबद्ध-सी हुई-हुई (पाप्मा) = पाप के प्रसार का हेतु बनती है, (अवधीयमाना) = तिरस्कृत करके दूर की जाती हुई (पारुष्यम्) = क्रूरताओं को उत्पन्न करती है, अर्थात् इस स्थिति में राजा प्रजा पर अत्याचार करने लगता है। (प्रयस्यन्ती विषम्) = ब्रह्मज्य द्वारा कष्ट उठाती हुई विष के समान प्राणनाशक बनती है, (प्रयस्ता) = सताई हुई होने पर यह (तक्मा) = ज्वर ही हो जाती है।
भावार्थ -
ब्रह्मगवी का छेदन व तिरस्कार राष्ट्र में 'वैर, अकालमृत्यु, इन्द्रियशक्ति-विनाश, असमृद्धि, पाप व पारुष्य' का कारण बनता है और विष बनकर ज्वरित करनेवाला होता है।
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