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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 61
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    त्वया॒ प्रमू॑र्णं मृदि॒तम॒ग्निर्द॑हतु दु॒श्चित॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वया॑ । प्रऽमू॑र्णम् । मृ॒दि॒तम् । अ॒ग्नि: । द॒ह॒तु॒ । दु॒:ऽचित॑म् ॥१०.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वया प्रमूर्णं मृदितमग्निर्दहतु दुश्चितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वया । प्रऽमूर्णम् । मृदितम् । अग्नि: । दहतु । दु:ऽचितम् ॥१०.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 61

    पदार्थ -

    १. हे ब्रह्मगवि! तू (जीतम्) = हिंसाकारी पुरुष को (आदाय) = पकड़कर (अमुष्मिन् लोके) = परलोक में जीताय प्रयच्छसि उससे पीड़ित पुरुष के हाथों में सौंप देती है। यह ब्रह्मज्य अगले जीवन में उस ब्राह्मण की अधीनता में होता है। हे (अघ्न्ये) = अहन्तव्ये वेदवाणि! तू (ब्राह्मणस्य) = इस ज्ञानी ब्राह्मण की (अभिशस्त्या) = हिंसा से उत्पन्न होनेवाले भयंकर परिणामों को उपस्थित करके (पदवी: भव) = मार्गदर्शक बन। तू ब्रह्मज्य के लिए (मेनि:) = वज्र (भव) = हो, शरव्या लक्ष्य पर आघात करनेवाले शरसमूह के समान हो, (आघात् अघविषा भव) = कष्ट से भी घोर कष्टरूप विषवाली बन । २. हे (अघ्न्ये) = अहन्तव्ये वेदवाणि! तू इस (ब्रह्मज्यस्य) = ज्ञान के विघातक, (कृतागस:) = [कृतं आगो येन] अपराधकारी, (देवपीयो:) = विद्वानों व दिव्यगुणों के हिंसक, (अराधसः) = उत्तम कार्यों को न सिद्ध होने देनेवाले दुष्ट के (शिरः प्रजहि) = सिर को कुचल डाल। (त्वया) = तेरे द्वारा (प्रमूर्णम्) = मारे गये, (मृदितम्) = चकनाचूर किये गये, (दुश्चितम्) = दुष्टबुद्धि पुरुष को (अग्निः दहतु) = अग्नि दग्ध कर दे।

    भावार्थ -

    ब्रह्मगवी का हिंसक पुरुष जन्मान्तर में ब्राह्मणों के वश में स्थापित होता है। हिंसित ब्रह्मगवी ब्रह्मज्य का हिंसन करती है। हिसित ब्रह्मगवी से यह ब्रह्मज्य अग्नि द्वारा दग्ध किया जाता है।

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