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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 21
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - साम्न्यनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
मृ॒त्युर्हि॑ङ्कृण्व॒त्युग्रो दे॒वः पुच्छं॑ प॒र्यस्य॑न्ती ॥
स्वर सहित पद पाठमृ॒त्यु: । हि॒ङ्कृ॒ण्व॒ती । उ॒ग्र: । दे॒व: । पुच्छ॑म् । प॒रि॒ऽअस्य॑न्ती ॥७.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
मृत्युर्हिङ्कृण्वत्युग्रो देवः पुच्छं पर्यस्यन्ती ॥
स्वर रहित पद पाठमृत्यु: । हिङ्कृण्वती । उग्र: । देव: । पुच्छम् । परिऽअस्यन्ती ॥७.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 21
विषय - क्षुरपवि----शीर्षक्ति
पदार्थ -
१. (ईक्षमाणा) = अत्याचरित यह ब्रह्मगवी सहायता के लिए इधर-उधर झाँकती हुई (क्षुरपवि:) = [The point of a spear] छुरे की नोक के समान हो जाती है। यह अत्याचारी की छाती में प्रविष्ट होकर उसे समास कर देती है। (वाश्यमाना) = सहायता के लिए पुकारती हुई यह (अभिस्फूर्जति) = चारों ओर मेघगर्जना के समान शब्द पैदा कर देती है। (हिङ्कृण्वती) = बंभारती हुई यह (मृत्यु:) = ब्रह्मज्य की मौत होती है। (पुच्छं पर्यस्यन्ती) = पूँछ फटकारती हुई यह ब्रह्मगवी उग्रः देवः-संहार करनेवाला काल [देव] ही बन जाती है। २. (कर्णौ वरीवर्जयन्ति) = [Tum away, avert] कानों को बारम्बार परे करती हुई यह ब्रह्मगवी (सर्वज्यानि:) = सब हानियों का कारण बनती है और (मेहन्ती) = मेहन [मूत्र] करती हुई (राजयक्ष्मः) = राजयक्ष्मा [क्षय] को पैदा करती है। (दुहामाना) = यदि यह ब्रह्मगवी दोही जाए. अर्थात् उसे भी धनार्जन का साधन बनाया जाए, तो यह (मेनि:) = वज्र ही हो जाती है और (दुग्धा) = दुग्ध हुई-हुई (शीर्षक्ति:) = सिरदर्द ही हो जाती है।
भावार्थ -
ब्रह्मगवी पर किसी तरह का अत्याचार करना अनुचित है, अत्याचरित हुई-हुई यह अत्याचारी की हानि व मृत्यु का कारण बनती है। इसे अर्थप्राप्ति का साधन भी नहीं बनाना, अन्यथा यह एक सरदर्द ही हो जाती है।
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