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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 43
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - साम्नी बृहती
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
छि॒नत्त्य॑स्य पितृब॒न्धु परा॑ भावयति मातृब॒न्धु ॥
स्वर सहित पद पाठछि॒नत्ति॑ । अ॒स्य॒ । पि॒तृ॒ऽब॒न्धु । परा॑ । भा॒व॒य॒ति॒ । मा॒तृ॒ऽब॒न्धु ॥९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
छिनत्त्यस्य पितृबन्धु परा भावयति मातृबन्धु ॥
स्वर रहित पद पाठछिनत्ति । अस्य । पितृऽबन्धु । परा । भावयति । मातृऽबन्धु ॥९.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 43
विषय - वंशविनाश
पदार्थ -
१. पीड़ित की गई ब्रह्मगवी (अस्य पितबन्धु छिनत्ति) = पैतृक सम्बन्धों को छिन्न कर डालती है, (मातृबन्ध पराभावयति) = मातृपक्षवालों को भी पराभूत करती है। यह (ब्रह्मगवी) = वेदवाणी यदि (क्षत्रियेण) = क्षत्रिय से (अपुन: दीयमाना) = फिर वापस लौटाई न जाए तो यह (ब्रह्मज्यस्य) = ब्रह्मघाती के (विवाहान्) = विवाहों को व (सर्वान् ज्ञातीन् अपि) = सब रिश्तेदारों को भी (क्षापयति) = नष्ट कर देती है। २. (यः) = जो (क्षत्रियः) = क्षत्रिय (एवं विदुषः ब्रह्मणस्य) = इसप्रकार ज्ञानी ब्राह्मण की (गाम् आदते) = इस ब्रह्मगवी को छीन लेता है, वह (अपरापरणः भवति) = सहायक से रहित हो जाता है अथवा पुराणों व नयों से रहित हो जाता है-सब इसका साथ छोड़ जाते हैं और (क्षीयते) = यह नष्ट हो जाता है। यह छिन्ना ब्रह्मगवी (एनम्) = इसको (अवास्तुम्) = घर-बार से रहित, (अस्वगम्) = [अ स्व ग] निर्धन व (अप्रजसम्) = सन्तानरहित (करोति) = कर देती है।
भावार्थ -
छिन्ना ब्रह्मगवी ब्रह्मज्य के सब वंश को ही समाप्त कर देती है।
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