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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 40
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - याजुष्यनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
अ॑स्व॒गता॒ परि॑ह्णुता ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्व॒गता॑ । परि॑ऽह्नुता ॥९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्वगता परिह्णुता ॥
स्वर रहित पद पाठअस्वगता । परिऽह्नुता ॥९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 40
विषय - सर्वविनाश
पदार्थ -
१. (तस्याः) = उस ब्रह्मगवी का (आहननम्) = मारना (कृत्या) = अपनी हिंसा करना है, (आशसनम्) = उसका टुकड़े करना (मेनि:) = वज्राघात के समान है, (ऊबध्यम्) = [दुर् बन्धनम्] उसको बुरी तरह से बाँधना (वलग:) = [वल+ग] हलचल की ओर ले-जानेवाला है-प्रजा में विप्लव को पैदा करनेवाला है। २. (परिह्रुता) = [हु अपनयने] अपनीता व चुरा ली गई यह ब्रह्मगवी (अस्व-गता) = निर्धनता की ओर गम वाली होती है-यह निर्धनता को उत्पन्न कर देती है। उस समय यह ब्रह्मगवी (क्रव्यात् अग्निः भूत्वा) = कच्चा मांस खा-जानेवाली अग्नि बनकर (ब्रह्मज्यं प्रविश्य अत्ति) = ब्रह्म की हानि करनेवाले में प्रवेश करके उसे खा जाती है। (अस्य) = इसके (सर्वा अङ्गा) = सब अङ्गों को (पर्वा) = पर्वों को-जोड़ों को व (मूलानि) = मूलों को (वृश्चति) = छिन्न कर देती है।
भावार्थ -
विनष्ट की गई ब्रह्मगवी विनाश का ही कारण बनती है।
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