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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 37
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - आसुर्यनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    अव॑र्तिर॒श्यमा॑ना॒ निरृ॑तिरशि॒ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑र्ति: । अ॒श्यमा॑ना । नि:ऽऋ॑ति: । अ॒शि॒ता॥८.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवर्तिरश्यमाना निरृतिरशिता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अवर्ति: । अश्यमाना । नि:ऽऋति: । अशिता॥८.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 37

    पदार्थ -

    १. (पिश्यमाना) = टुकड़े-टुकड़े की जाती हुई यह ब्रह्मगवी (क्रुद्धः शर्वः) = कुद्ध हुए-हुए प्रलंकार रुद्र के समान होती है। (पिशिता) = काटी गई होने पर (शिमिदा) = शान्ति व सुख को नष्ट करनेवाली होती है [दाप लवने]। (अश्यमाना) = खाई जाती हुई (अवर्तिः) = दरिद्रता व सत्ताविनाश का हेतु होती है और अशिता (निर्ऋति:) = खायी गई होकर पापदेवता व मृत्यु के समान भयंकर होती है। २. (अशिता ब्रह्मगवी) = खायी गई यह 'ब्रह्मगबी' (ब्रह्मज्यम्) = ज्ञान के विनाशक इस राजन्य को (अस्मात् च अमुष्मात् च) = इस लोक से और परलोक से-अभ्युदय व निःश्रेयस से (छिनत्ति) = उखाड़ फेंकती है।

    भावार्थ -

    वेदवाणी का प्रतिरोध प्रलयंकर होता है-यह शान्ति का विनाश कर देता है, दरिद्रता व दुर्गति का कारण बनता है तथा अभ्युदय व निःश्रेयस को विनष्ट कर देता है।

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