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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 13
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आर्ची पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    स यत्पि॒तॄननु॒व्यच॑लद्य॒मो राजा॑ भू॒त्वानु॒व्यचलत्स्वधाका॒रम॑न्ना॒दं कृ॒त्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । यत् । पि॒तॄन् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । य॒म: । राजा॑ । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । स्व॒धा॒ऽका॒रम् । अ॒न्न॒ऽअ॒दम् । कृ॒त्वा ॥१४.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स यत्पितॄननुव्यचलद्यमो राजा भूत्वानुव्यचलत्स्वधाकारमन्नादं कृत्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । यत् । पितॄन् । अनु । विऽअचलत् । यम: । राजा । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । स्वधाऽकारम् । अन्नऽअदम् । कृत्वा ॥१४.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 13

    पदार्थ -

    १. (स:) = वह (यत्) = जब (पितृृन अनुव्यचलत्) = पितरों को लक्ष्य करके गतिवाला हुआ तो (यमः राजा भूत्वा अनुव्यचलत्) = संयत व दीसजीवनवाला होकर चला। संयत व दीप्ति जीवनवाला बनकर ही तो वह पितरों के समान बन सकेगा। २. (यः एवं वेद) = जो पितरकोटि में प्रवेश के लिए संयम व ज्ञानदीप्ति के महत्त्व को समझता है, वह (स्वधाकारं अन्नादं कृत्वा) = स्वधाकार को अन्नाद बनाकर चलता है, अर्थात् पहले पितरों [बड़ों] को खिलाकर पीछे स्वयं खाता है [पितृभ्यः स्वधा]। यह (अन्नादेन स्वधाकारेण अन्नं अत्ति) = अन्न खानेवाले स्वधाकार से ही अन्न को खाता है, अर्थात् सदा पितृयज्ञ करके अवशिष्ट को ही खानेवाला बनता है।

    भावार्थ -

    पितृयाणमार्ग का सफलता से आक्रमण करने के लिए आवश्यक है कि हम संयत व ज्ञानदीप्तजीवनवाले बनें और पितरों को खिलाकर पितृयज्ञावशिष्ट को ही खाएँ।

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