अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 23
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - निचृत आर्ची पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
सयत्सर्वा॑नन्तर्दे॒शाननु॒ व्यच॑लत्परमे॒ष्ठीभू॒त्वानु॒व्यचल॒द्ब्रह्मा॑न्ना॒दं कृ॒त्वा ॥
स्वर सहित पद पाठस: । यत् । सर्वा॑न् । अ॒न्त॒:ऽदे॒शान् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । प॒र॒मे॒ऽस्थी। भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । ब्रह्म॑ । अ॒न्न॒ऽअ॒दम् । कृ॒त्वा ॥१४.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
सयत्सर्वानन्तर्देशाननु व्यचलत्परमेष्ठीभूत्वानुव्यचलद्ब्रह्मान्नादं कृत्वा ॥
स्वर रहित पद पाठस: । यत् । सर्वान् । अन्त:ऽदेशान् । अनु । विऽअचलत् । परमेऽस्थी। भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । ब्रह्म । अन्नऽअदम् । कृत्वा ॥१४.२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 23
विषय - परमेष्ठी+अन्नाद ब्रह्म
पदार्थ -
१. (स:) = वह (यत्) = जब (सर्वान् अन्तर्देशान्) = सब अन्तर्देशों में प्रजाओं के निवासस्थानों में (अनुव्यचलत्) = अनुकूलता से गतिवाला हुआ तो (परमेष्ठी भूत्वा अनुव्यचलत्) = परम स्थान में स्थित होता हुआ गतिवाला हुआ। प्रजाहित के लिए सब अन्तर्देशों में भ्रमण ही मानवजीवन का चरमोत्कर्ष है। इस समय यह (ब्रह्म अन्नादं कृत्वा) = ब्रह्म को ही अन्नाद बनाकर चला। भोजन को केवल इसलिए खाने लगा कि स्वस्थ शरीर में मैं ब्रह्मदर्शन कर पाऊँगा। २. (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार प्रजाहित के लिए सब अन्तर्देशों में विचरण को आवश्यक समझ लेता है, वह परमेष्ठी [व्रात्य] (ब्रह्मणा अन्नादेन अन्नम् अत्ति) = अन्न को खानेवाले ब्रह्म से ही अन्न को खाता है भोजन का उद्देश्य ही ब्रह्म-प्राप्ति ही जानता है। जो भोजन ब्रह्म-प्राप्ति के मार्ग पर चलने में सहायक है, उन्हीं को करता है।
भावार्थ -
प्रजाहित के लिए सब अन्तर्देशों में विचरते हुए हम 'परमेष्ठी' बनें। उन्हीं भोजनों को करें जो हमारी प्रवृत्तियों को ब्रह्मप्रवण करनेवाले हों।
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