अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 16
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - भुरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
स्वा॑हाका॒रेणा॑न्ना॒देनान्न॑मत्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस्वा॒हा॒ऽका॒रेण॑ । अ॒न्न॒ऽअ॒देन॑ । अन्न॑म् । अ॒त्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१४.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वाहाकारेणान्नादेनान्नमत्ति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठस्वाहाऽकारेण । अन्नऽअदेन । अन्नम् । अत्ति । य: । एवम् । वेद ॥१४.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 16
विषय - अग्नि+स्वाहाकार अन्नाद
पदार्थ -
१. (स:) = वह (यत्) = जब (मनुष्यान् अनुव्यचलत्) = मनुष्यों के अनुकूल गतिवाला हुआ, अर्थात् जब उसने एक उत्तम मानव बनने का निश्चय किया तब (अग्निः भूत्वा अनुव्यचलत्) = अग्नि बनकर चला-निरन्तर आगे बढ़नेवाला प्रकाशमय उत्साहवाला [अग्नि-उत्साह]। २. (यः एवं वेद) = जिसने यह समझ लिया कि उत्तम सन्तान वही है जो आगे बढ़नेवाला, प्रकाशमय व उत्साहवाला'है, तो वह (स्वाहाकारम् अन्नादं कृत्वा) = स्वाहाकार को अन्नाद बनाकर चला। यज्ञ करके यज्ञशेष को खाने की वृत्तिवाला बना। यह व्यक्ति (अन्नादेन स्वाहाकारेण अन्न अत्ति) = अन्न को खानेवाले स्वाहाकार से ही अन्न को खाता है। पहले अग्नये स्वाहा' और पीछे 'उदराय'। यह उसका जीवन-सूत्र बनता है।
भावार्थ -
उत्तम मानव वही है जो 'अग्रगतिवाला, प्रकाश व उत्साहवाला है। यह सदा यज्ञशेष अमृत का सेवन करता है।
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