अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - त्रिपदानुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
स यत्प्राचीं॒दिश॒मनु॒ व्यच॑ल॒न्मारु॑तं॒ शर्धो॑ भू॒त्वानु॒व्यचल॒न्मनो॑ऽन्ना॒दं कृ॒त्वा॥
स्वर सहित पद पाठस: । यत् । प्राची॑म् । दिश॑म् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । मारु॑तम् । शर्ध॑: । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । मन॑: । अ॒न्न॒ऽअ॒दम् । कृ॒त्वा ॥१४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
स यत्प्राचींदिशमनु व्यचलन्मारुतं शर्धो भूत्वानुव्यचलन्मनोऽन्नादं कृत्वा॥
स्वर रहित पद पाठस: । यत् । प्राचीम् । दिशम् । अनु । विऽअचलत् । मारुतम् । शर्ध: । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । मन: । अन्नऽअदम् । कृत्वा ॥१४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
विषय - मारुतं शर्ध:+अन्नादं मन:
पदार्थ -
१. (स:) = वह व्रात्य (यत्) = जब (प्राचीं दिशं अनुव्यचलत्) = प्रगति [प्र अञ्च] की दिशा में क्रमशः आगे बढ़ा तो (मारुतं शर्धः) = प्राण-सम्बन्धी बल का पुञ्ज (भूत्वा) = होकर, अर्थात् प्राणसाधना द्वारा सबल बनकर (अनुव्यचलत्) = क्रमशः आगे बढ़ा। २. इसके साथ यह (मन: अन्नादं कृत्वा) = मन को अन्नाद बनाकर आगे बढ़ा। मन के दृष्टिकोण से यह भोजन खानेवाला हुआ। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार समझ लेता है कि मन की पवित्रता का निर्भर अन्न पर ही है, [जैसा अन्न वैसा मन, you are, what you eat, आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः] वह (अन्नादेन) = अन्न का ग्रहण करनेवाले (मनसा अन्नं अत्ति) = मन से अन्न खाता है। मन की अपवित्रता के कारणभूत अन्न को नहीं खाता।
भावार्थ -
हम प्राणसाधना द्वारा प्राणशक्ति का वर्धन करें और मन की पवित्रता के दृष्टिकोण से सात्विक भोजन ही खाएँ, यही प्रगति की दिशा में आगे बढ़ने का उपाय है।
इस भाष्य को एडिट करें