अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 7
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - प्रस्तार पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
स यदुदी॑चीं॒दिश॒मनु॒ व्यच॑ल॒त् सोमो॒ राजा॑ भू॒त्वानु॒व्यचलत्सप्त॒र्षिभि॑र्हु॒तआहु॑तिमन्ना॒दीं कृ॒त्वा ॥
स्वर सहित पद पाठस: । यत् । उदी॑चीम् । दिश॑म् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । सोम॑: । राजा॑ । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । स॒प्त॒र्षिऽभि॑: । हु॒ते । आऽहु॑तिम् । अ॒न्न॒ऽअ॒दीम् । कृ॒त्वा ॥१४.७॥
स्वर रहित मन्त्र
स यदुदीचींदिशमनु व्यचलत् सोमो राजा भूत्वानुव्यचलत्सप्तर्षिभिर्हुतआहुतिमन्नादीं कृत्वा ॥
स्वर रहित पद पाठस: । यत् । उदीचीम् । दिशम् । अनु । विऽअचलत् । सोम: । राजा । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । सप्तर्षिऽभि: । हुते । आऽहुतिम् । अन्नऽअदीम् । कृत्वा ॥१४.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 7
विषय - सोमराजा+अनादी ज्ञानयज्ञाहुति
पदार्थ -
१. (स:) = वह व्रात्य (यत्) = जब उदीचीम् [उद् अञ्च] उन्नति की दिशा की ओर (अनुव्यचलत्) = चला तो (सोमः) = सौम्य, शान्त व (राजा) = दीप्तजीवनवाला भूत्वा बनकर अनुव्यचलत क्रमशः आगे बढ़ा। सौम्यता व ज्ञानदीप्त जीवन में ही उन्नति सम्भव है। २. (यः एवं वेद) = जो इस तत्त्व को समझ लेता है कि उन्नति के लिए सौम्य, दीप्त जीवन की आवश्यकता है वह (सप्तर्षिभि:) = 'दो कान, दो नासिका-छिद्र, दो आँखें व मुख' रूप सप्तर्षियों से हते-किये जानेवाले ज्ञानयज्ञ में (आहुतिम्) = ज्ञेय विषयों की आहुति को (अन्नादी कृत्वा) = अन्न खानेवाली बनाकर आगे बढ़ता है। इस (अन्नाद्या आहुत्या) = अन्न को खानेवाली, विषयों की ज्ञानयज्ञ में दी जानेवाली आहुति से ही यह (अन्नं अत्ति) = अन्न को खाता है। उसी अन्न को खाता है जो ज्ञानेन्द्रियों को अपने कार्य में सक्षम करे।
भावार्थ -
हम सौम्य व ज्ञानदीप्त जीवनवाले बनते हुए जीवन में ऊर्ध्वगतिवाले हों। उन्हीं अन्नों का सेवन करें जो ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञानप्राप्ति के कार्य में सक्षम करें।
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