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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 9
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - पुर उष्णिक् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    स यद्ध्रु॒वांदिश॒मनु॒ व्यच॑ल॒द्विष्णु॑र्भू॒त्वानु॒व्यचलद्वि॒राज॑मन्ना॒दीं कृ॒त्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । यत् । ध्रु॒वाम् । दिश॑म् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । विष्णु॑: । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । वि॒ऽराज॑म् । अ॒न्न॒ऽअ॒दीम् । कृ॒त्वा ॥१४.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स यद्ध्रुवांदिशमनु व्यचलद्विष्णुर्भूत्वानुव्यचलद्विराजमन्नादीं कृत्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । यत् । ध्रुवाम् । दिशम् । अनु । विऽअचलत् । विष्णु: । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । विऽराजम् । अन्नऽअदीम् । कृत्वा ॥१४.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 9

    पदार्थ -

    १. (स:) = वह व्रात्य (यत्) = जब (ध्रुवां दिर्श अनुव्यचलत्) = ध्रुवता-स्थिरता की दिशा की ओर चला तो (विष्णाः) = व्यापक उन्नतिवाला-'शरीर, मन व मस्तिष्क' तीनों की उन्नतिवाला-'स्वस्थ शरीर, पवित्र मन व दीप्त मस्तिष्क' वाला (भूत्वा अनुव्यचलत्) = होकर अनुकूलता से गतिवाला हुआ। त्रिविध उन्नति में ही उन्नति की स्थिरता है। २. (यः एवं वेद) = जो त्रिविध उन्नति में ही उन्नति की स्थिरता के तत्त्व को समझ लेता है, वह (विराजम्) = इस विशिष्ट दीप्ति को ही (अन्नादीं कृत्वा) = अन्न खानेवाला बनकर चलता है। उसी अन्न को खाता है जो उसे विराट्-विशिष्ट दीप्तिवाला बनाए। (अन्नाद्या) = अन्न को खानेवाला (विराजा) = विशिष्ट दीप्ती से ही वह (अन्नं अत्ति) = अन्न खाता है-उसी अन्न को खाता है, जो उसे विशिष्ट दीप्तिवाला बनाता है।

    भावार्थ -

    उन्नति की स्थिरता इसी में है कि हम शरीर, मन व मस्तिष्क तीनों को उन्नत करें, तभी हम 'विराट' बनेंगे। विराट् बनने के दृष्टिकोण से ही अन्न खाना चाहिए-वह अन्न जो हमें 'शरीर में स्वस्थ, मन में पवित्र तथा मस्तिष्क में दीस' बनाये।

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