अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - पुर उष्णिक्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
स यद्दक्षि॑णां॒दिश॒मनु॒ व्यच॑लद्भू॒त्वानु॒व्यचल॒द्बल॑मन्ना॒दं कृ॒त्वा ॥
स्वर सहित पद पाठस: । यत् । दक्षि॑णाम् । दिश॑म् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । इन्द्र॑: । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । बल॑म् । अ॒न्न॒ऽअ॒दम् । कृ॒त्वा ॥१४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
स यद्दक्षिणांदिशमनु व्यचलद्भूत्वानुव्यचलद्बलमन्नादं कृत्वा ॥
स्वर रहित पद पाठस: । यत् । दक्षिणाम् । दिशम् । अनु । विऽअचलत् । इन्द्र: । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । बलम् । अन्नऽअदम् । कृत्वा ॥१४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
विषय - इन्द्र+अन्नादं बलं
पदार्थ -
१. (स:) = वह (यत्) = जब (दक्षिणां दिशं अनुष्यचलत्) = दक्षिणा [नैपुण्य] की दिशा की ओर चला तो (इन्द्रः भूत्वा अनुव्यचलत्) = जितेन्द्रिय बनकर चला। जितेन्द्रिय बनकर ही हम दाक्षिण्य प्राप्त कर सकते हैं। २. दाक्षिण्य प्राप्त करनेवाला (यः) = जो भी व्यक्ति (एवं वेद) = इस तत्व को समझ लेता है कि जितेन्द्रियता से दाक्षिण्य प्राप्त किया जा सकता है, वह जितेन्द्रिय बनकर (बलं आन्नदं कृत्वा) = बल को अन्न खानेवाला करके आगे बढ़ता है। (अन्नादेन बलेन अन्नं अत्ति) = अन्न को खानेवाले बल से अन्न को खाता है। उसी अन्न को खाता है जो बल को बढ़ानेवाला है। ये किसी भी स्वाद को भोजन का मापक नहीं बनाता।
भावार्थ -
हम जितेन्द्रिय बनकर दाक्षिण्य प्राप्त करें। बल के वर्धन के दृष्टिकोण से ही भोजन करें|
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