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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 18
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - भुरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    व॑षट्का॒रेणा॑न्ना॒देनान्न॑मत्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒ष॒ट्ऽका॒रेण॑ । अ॒न्न॒ऽअ॒देन । अन्न॑म् । अ॒त्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१४.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वषट्कारेणान्नादेनान्नमत्ति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वषट्ऽकारेण । अन्नऽअदेन । अन्नम् । अत्ति । य: । एवम् । वेद ॥१४.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 18

    पदार्थ -

    १. (स:) = वह (यत्) = जब (ऊर्ध्वाम्) = उन्नति की सर्वोपरि (दिशं अनुव्यचलत्) = दिशा की ओर चला. तब (बृहस्पतिः भूत्वा अनुव्यचलत्) = ब्रह्मणस्पति-ज्ञान का स्वामी बनकर चला। २. (यः एवं वेद) = जो इस बात को समझ लेता है कि उन्नति के शिखर पर पहुँचने के लिए बृहस्पति बनना आवश्यक है, वह (वषट्कारम्) = [वश् to kill] वासना-विनाश के कार्य को (अन्नादं कृत्वा) = अन्न का खानेवाला करके चलता है, अर्थात् उन्हीं भोजनों को करता है जो वासनाओं को उत्तेजित करनेवाले न हों। यह (वषट्कारेण) = वषट्काररूपी (अन्नादेन) = अन्न खानेवाले से (अन्नं अत्ति) = अन्न को खाता है, अर्थात् भोजन का उद्देश्य वासनाशून्य शक्ति को जन्म देना ही मानता है।

    भावार्थ -

    उन्नति के शिखर पर ज्ञान के द्वारा ही पहुंचा जा सकता है। ज्ञान के मार्ग में वासनाएँ ही विघातक हैं, अत: भोजन वही ठीक है जो वासनाशून्य शक्ति को जन्म दे।

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