अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 10
हि॒मेव॑ प॒र्णा मु॑षि॒ता वना॑नि॒ बृह॒स्पति॑नाकृपयद्व॒लो गाः। अ॑नानुकृ॒त्यम॑पु॒नश्च॑कार॒ यात्सूर्या॒मासा॑ मि॒थ उ॒च्चरा॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठहि॒माऽइ॑व । प॒र्णा । मु॒षि॒ता । वना॑नि । बृह॒स्पति॑ना । अ॒कृ॒प॒य॒त् । व॒ल: । गा: ॥ अ॒न॒नु॒ऽकृ॒त्यम् । अ॒पु॒नरिति॑ । च॒का॒र॒ । यात् । सूर्या॒मासा॑ । मि॒थ: । उ॒त्ऽचरा॑त: ॥१६.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
हिमेव पर्णा मुषिता वनानि बृहस्पतिनाकृपयद्वलो गाः। अनानुकृत्यमपुनश्चकार यात्सूर्यामासा मिथ उच्चरातः ॥
स्वर रहित पद पाठहिमाऽइव । पर्णा । मुषिता । वनानि । बृहस्पतिना । अकृपयत् । वल: । गा: ॥ अननुऽकृत्यम् । अपुनरिति । चकार । यात् । सूर्यामासा । मिथ: । उत्ऽचरात: ॥१६.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 10
विषय - सूर्यामासा मिथ उच्चरात:
पदार्थ -
१. (इव) = जैसे (हिमा) = बर्फ (पर्णा) = पत्तों को नि:सार करके चुरा-सा लेती है, इसी प्रकार (बृहस्पतिना) = ज्ञान के स्वामी प्रभु के द्वारा (बवनानि) = सम्भजनीय गोधन-ज्ञानवाणीरूप धन (मुषिता) = वृत्रासुर ने हर लिये, (वल) = ज्ञान की आवरणभूत इस वासना ने तो-वृत्र ने तो (गा: अकृपयत्) = इन ज्ञानवाणीरूप गौओं को बड़ा निर्बल कर दिया था [कृप् to beweak]। बृहस्पति ने वल [वृत्र] को विनष्ट करके इन ज्ञानधेनुओं को फिर से हमें प्रास कराया है। २. परमात्मा ने (अनानुकृत्यम्) = अन्यों से न अनुकरणीय, तथा (अपुनः) = पुनः करणरहित, अर्थात् दुबारा जिसे करने की आवश्यकता न हो इस प्रकार (चकार) = यह कर्म किया है । (यात्) = जब [यात्-यत्] हमारे जीवनों में (सूर्यामासा) = सूर्य और चन्द्र (मिथ:) = परस्पर मिलकर (उच्चरात:) = उद्गत होते हैं। हमारे जीवनों में ज्ञान का सूर्य व विज्ञान का चन्द्र इकटे ही उदित होते हैं। भौतिक क्षेत्र में भी दाहिने नासिका छिद्र से सूर्यस्वर तथा बाएँ से चन्द्रस्वर उच्चारित होते हैं। ये ही प्राण और अपान हैं ये मिलकर कार्य करते हैं। इनके ठीक कार्य करने पर हम स्वस्थ बुद्धि बनकर ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त करनेवाले बनते हैं।
भावार्थ - प्रभु वृत्र को विनष्ट कर ज्ञानधेनु को हमें प्राप्त कराते हैं। प्रभु का यह वृत्र-विनाश द्वारा ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त कराना एक अद्भुत ही कार्य है।
इस भाष्य को एडिट करें